Thursday, December 23, 2010

शब्दों के मोल - सो... सोच समझ कर बोल!

शब्द - हर एक शब्द का अपना मोल है। कई मतलब हैं, कई भाव हैं।

कल एक वाकये ने इन्हीं शब्दों के मोल के ऊपर कुछ लिखने पर मजबूर कर दिया। कुछ लिखकर दोस्तों के बीच साझा किया। शायद उन चंद शब्दों का असर प्रभावी रहा। शावर की नॉब खुलते ही झर-झर बरसती पानी की बूँदों की तरह कई सवाल मेरे सामने आ गए। मेरे शायराना मिज़ाज़ का अचानक परवान चढ़ने का सबब पूछा जाने लगा? मुझसे मेरी ख़ैर-ख़बर ले ली गई? स्वास्थ्य के हालात से लेकर दिल की तबीयत तक की बातें उगलवाने के लिए लोगों के मैसेजेज़ और फ़ोन आने शुरू हो गए? जब दो पंक्तियों का असर ऐसा रहा, तो रहा न गया। वो शब्दों का सिल‍सिला आगे बढ़ाने का मन किया।

शुरूआत दो पंक्तियों से हुई, और अंजाम तक आते-आते एक कविता की रचना भी हो गई। उसी को नज़र कर रहा हूँ!!!


~ शब्द ~

कभी सोचा था...शब्द बहुत कीमती हैं!
आज कुछ बोलकर, नुकसान कर लिया।


बनिये की तरह तोलकर रखे थे,
कुछ हल्के, तो कुछ भारी,
कोई बस एक लफ़्ज़ भर है,
किसी में छुपी है कहानी सारी,
कुछ शब्द रेशम में लिपटे रखे हैं,
कुछ कटु-कठोर से,
बेतरतीब बेपरवाह पड़े हैं।
इनकी दुकान खोलकर, नुकसान कर लिया।
आज कुछ बोलकर, नुकसान कर लिया।


अलग-अलग रंगत है शब्दों की,
कुछ सोच ही में रहकर परेशाँ करते हैं,
तो कुछ बरबस यूँ ही निकल पड़ते हैं,
स्नेहिल से मीठे-मीठे कुछ,
सभी को रास आते हैं,
कुछ अपनी कड़वाहट से कभी,
रिश्तों पर भारी पड़ जाते हैं।
उलझा देते हैं कुछ - पहेली जैसे,
शब्द एक - मतलब कई,
आख़िर ठीक समझें, तो कैसे? 
वहीं, शब्द कुछ सटीक से,
झट से स्पष्ट हो जाते हैं।
काँटों से चुभते भी हैं,
और फुलों की तरह मुरझाते हैं।
ये शब्दज्ञान टटोलकर, नुकसान कर लिया।
कुछ शब्दों को खोकर, नुकसान कर लिया।
आज ज़रा कुछ बोलकर, नुकसान कर लिया।

~ पंकज

Tuesday, September 28, 2010

लाइफ़ एट मेट्रो - भाग दो




मेट्रो स्टेशन पर ज़िंदगी की दौड़-भाग देखते हुए काफ़ी समय हो गया था। मेट्रो में चढ़ती-उतरती भीड़ की हरकतें, उनकी कतारें, किसी का गिरना-टकराना इन सबके बीच में मेट्रो ट्रेन मेरे विचारों के बीच से कहीं खो सी गई थी। अब मेट्रो ट्रेन मेरे केंद्रबिंदु पर थी। हमेशा लंबी-चौड़ी ट्रेनें देखी थी। लार रंग की, नीले रंग की, या फिर राजधानी या केरल एक्सप्रेस की तरह रंग बिरंगी। ऐसे में धूसर रंग में चमचमाती मेट्रो ट्रेन जब पहली बार देखी थी तभी भा गई थी। सिलेंडर के आकार की ये तेज़ गाड़ी देखने में बहुत अच्छी लगती है।
हॉलीवुड की फ़िल्मों में देखी थी मेट्रो टेन जो आगे से एक दम नुकीली होती है ताकि डायनेमिक्स के नियमों के विरूद्ध वो हवा को काटती बहुत तेज़ी से दौड़े। यहाँ की मेट्रो ट्रेन आगे से एकदम सपाट है। ध्यान से देखा जब तो मैंने कल्पनाओं में ही इसे बिल्कुल कार्टुन नेटवर्क पर आने वाले बच्चों के बेसिरपैर के कार्टून धारा‍वाहिकों से जोड़ लिया। वैसी ट्रेन जिसके आँख, नाक, कान, मुँह सब होता है और वो बात भी करती है। दिल्ली मेट्रो की बनावट में भी मुझे वही दिखाई देने लगा। आगे दो बड़े-बड़े काँच और उनके नीचे छोटी-छोटी लाइट्स जैसे दो आँखों का अनुभव करा रही थी। उनके ठीक बीच में दिल्ली मेट्रो का लोगो गोल-गोल नाक की तरह दिखता है। और रही मुँह की बात तो वो भी दिखाई दे गया। मेट्रो पर आगे लगी लाइट्स और उसके लोगो के आस-पास चाँदी के रंग की एक मोटी सी लाईन ऊपर से होती हुई नीचे तक आती है बिल्कुल अंग्रेज़ी के यू अक्षर की तरह जो एक बच्चों की रेल के मुँह जैसा अनुभव देती है। नीचे बड़े-बड़े अक्षरों में “BOMBARDIER” लिखा है। जैसे बच्चों की ट्रेन पर ब्रांड का नाम होता है ठीक वैसे ही। बच्चों की ट्रेन देखकर तो ख़ुशी होती थी। इसे देखकर ख़ुशी तो होती है लेकिन डर भी लगता है कि कहीं ये कार्टून फ़िल्मों की वो गंदी वाली ट्रेन न हो जो सबको खा जाती है।

इस रेल के डिब्बे या फि़र मेट्रो क्यूब्स कहें, ऐसे आयत आकर के हैं। बचपन में घर बनाने के लिए यही आकार सबसे ज़्यादा काम आता था। चार-आयत बनाए दीवारों के, फिर दो और खिड़कियों के लिए और एक से दरवाज़ा बन जाता था। मैंने मेट्रो के क्यूब्स में भी एक घर देख लिया जिसमें दो आयत दरवाज़ें है और दो बड़ी-बड़ी सी खिड़कियाँ भी हैं। वैसे इस मेट्रो की बोगी में 4 गेट होते हैं और दो दरवाज़ों के बीच में मेट्रो के दो लोगों बने हैं। ऊपर से देखो तो इस तरह लगता है जैसे गाँवों में घरों पर लगने वाले खपरैलों को अच्छे से सज़ा कर एक लाइन में मेट्रो के ऊपर लगा दिया है। ऊपर छत पर ही इलेक्ट्रीक सिस्टम इंस्टॉल है जो इसे बिजली से चलने में मदद करता है। और इन ख़परैलों के नीचे बड़े-बड़े एसी सिस्टम्स लगे होंगे। वैसे हद ही हो गई कहाँ मेट्रो की छत और कहाँ गाँव में घरों के ऊपर बिछने वाले ख़परैल। ये मन भी दो चीज़ों के बीच में जाने कहाँ-कहाँ से क्या तालमेल बैठा लेता है।
मेट्रो के गेट खुल गए अचानक जब मैं उसकी बाहरी बनावट को देख रहा था। कुछ मेट्रो में दरवाज़ों के ठीक ऊपर एक पीली ब‍त्ती जलती है। जब भी वो दरवाज़ें खुलने या बंद होने लगते हैं, तब वह बत्ती जलती-बुझती है। इस देखकर मुझे रामायण में ताड़का राक्षसी की याद आ गई। जब हनुमान उसके मुँह के अंदर जाते हैं तो ताड़का का मुँह भी ऐसे ही खुलता और बंद होता है। पहले के स्पेशल इफ़ेक्ट्स को देखना कितना मज़ेदार होता था। अगर रामानंद सागर ने ताड़का की आँखों में इस तरह का लाइट इफ़ेक्ट डाला होता तो वो और भी भयानक लग सकती थी। ख़ैर अब तो सबकुछ संभव है।
अचानक से एक और मेट्रो स्टेशन पर प्रवेश करती है। जब भी मेट्रो आती है तो लगता है सुरंग में से अचानक से किसी ने कोई गोला छोड़ा है जो आकर सीधे आपकी जान लेने वाला है। और जब ये स्टेशन पर आकर ब्रेक लगाती है तो लगता है जैसे 1000 घोड़ों की लगाम एक साथ खींच दी गई है।
मैं जब स्टेशन पर आया था तब यहाँ कानों में कुछ अजीब सी आवाज़ के कारण सनसनी होने लगी थी। अब इतनी देर के बाद वो आवाज़ भी नहीं सुनाई दे रही है। शायद इतनी देर यहाँ रूकने का असर है। हम आदी हो जाते हैं इस तरह ही चीज़ों के कुछ ही देर में। आवाज़ों के साथ, रिश्तों के साथ, इंसानों के साथ, दोस्तों के साथ, अपनी गाड़ी के साथ। शायद यही मनुष्य की प्रवत्ति होती है।
इतना गंभीर होना ही था कि ध्यान फिर ज़िंदगी पर चला गया। सामने ब्रिज पर दो लड़के हाथों में हाथ डाले मस्ती में बातें करते, हँसते हुए चले आ रहे थे। उनके बारे में कुछ ग़लत न सोचने की इच्छा रखते हुए भी मन में सेक्शन 377 और गे राइट एक्ट का पूरा मसला घूम गया। कितना हव्वा बन जाता है समाज में कि आप कितने ही उदारवादी सोच के हों, चाहे जितनी खुले दायरे का सोच रखते हों फिर भी मज़ाक और व्यंग में ही सही आप वो बातें सोचने लग जाते हैं जो सामान्यत: आप नहीं मानते हैं। इस तरह की बातों को इतना बढ़ा-चढ़ा दिया जाता है कि हम आदी हो जाते हैं। शायद वही मनुष्य प्रवृत्ति वाला नियम यहाँ पर भी लागू हो गया है।
अब काफ़ी देर हो गई है मेट्रो के बारे में देखते हुए। और मैं भी यहाँ खड़ा किसी ट्रैफ़िक हवलदार से कम काम नहीं कर रहा हूँ। जिसको देखो सीधे मेरे सामने आकर खड़ा हो जाता है और रास्ता पूछने लगता है। कभी-कभी तो चिढ़ होने लगती है। अरे आप पढ़े-लिखे हैं सामने पढ़ लिजिए अगर वहाँ नहीं समझ आता है तो पूछिए न। वैसे ये चिढ़ एक ही साथ थोड़े ही समय में बहुत सारे लोगों द्वारा रास्ता पूछने के कारण हो गई है। वरना सामान्यत: तो मैं ऐसा नहीं हूँ। सच है एक ही जगह बहुत देर ‍बुत बनकर खड़े रहने से अपने स्वभाव में भी परिवर्तन आ ही जाते हैं।



मेट्रो ट्रेन की बाहरी काया के दर्शन ने तो कल्पनाओं को अलग ही पर दे दिए थे। अब समय था कि ज़रा देर मेट्रो के अंदर के भाग को भी महत्व दिया जाए। हमने वहीं ब्रिज के ऊपर से ही मेट्रो के अंदर के माहौल को भाँपने की कोशिश भी की। पहली मेट्रो जैसे ही आई थी और जो भीड़ मेट्रो से निकलकर प्लेटफ़ॉर्म पर फैल गई थी मन में आया कि अब दिल्ली की हाईटेक मेट्रो और मुंबई की लोकल ट्रेनों में ज़्यादा अंतर नहीं रह गया है। सुबह और शाम को कार्यालयीन छुट्टी के समय मेट्रो में भीड़ का अंदाज़ा लगाना कठिन ही होता है। इन समय आप मेट्रो में आराम से यात्रा कर सकेंगे ये सोचना अब तो बेमानी ही होगी। पहले आरामदायक यात्रा की पहचान बन चुकी मेट्रो भी अब भीड़ की मार झेल रही है। जिधर देखें ऊधर आपको भीड़ दिख जाती है – मेट्रो स्टेशन पर, प्लेटफ़ॉर्म की लंबी कतारों में, या फिर मेट्रो के अंदर भी।
मेट्रो के अंदर की बात की जाए तो सुबह और शाम के समय में यनि मेट्रो के अंदर देखें तो आपको मेट्रो की छत पर लगे पाईप्स और हैंडल पर हाथ ही हाथ दिखाई देंगे। एक दूसरे में गुँथे हुए और उलझे हुए हाथ। यही हाल मैंने तब भी देखा था जब मैं दिल्ली पहली बार आया था और ब्लू लाइन बस में यात्रा की थी। इन दोनों दृश्यों में अंतर केवल आम लोगों का था। ब्लू लाइन में यात्रा करने वाले एक अलग वर्ग के लोग हो गए हैं और मेट्रो का एक अलग वर्ग बन गया है। हालाँकि दोनों ही साधन किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं है।
इतनी भीड़ में अंदर नज़र तो चली ही गई थी। एक लड़के को देखा अचानक तो वो भीड़ में गेट पर जैसे-तैसे खड़ा तो हो गया फिर अपना हाथ बाहर निकालने की कोशिश करने लगा। थोड़ी मशक्कत के बाद उसने अपना हाथ भीड़ में से निकाला और अपने सीने पर लगे मोबाइल के हैंड्सफ़्री का बटन दबाया और बात करने लगा। सच में यदि इतनी भीड़ में किसी का मोबाई‍ल बज भी जाए तो उसे उठाने में कितनी दिक्कत होगी। चलिए, मोबाइल उठाने की बात तो ठीक है, इतनी भीड़ में यदि किसी को खाँसी या छींक आ जाए तो क्या हो? आस-पास खड़े लोगों की डाँट सुनने को मिलेगी और साथ में असभ्य होने का ठप्पा लगा दिया जाएगा सो अलग। पर इतनी भीड़ में आख़िर कोई करेगा भी तो क्या। वैसे इन बातों का फ़ायदा सामान वाले यात्री को हो सकता है। वो ख़ुद और उसका सामान मेट्रो के अंदर की भीड़ की धक्कामुक्की की बदौलत अपने आप ही भीड़ में अपनी जगह बना लेगा।
मेट्रो में वाकई बहुत भीड़ हो गई है। मुझे याद आ रहा है जब पहली बार मैंने मेट्रो में सवारी की थी, तब तो मैंने बैठकर यात्रा की थी। और एसी की ठंडी हवाओं से ऐसा लग रहा था जैसे होटल की लॉबी में बैठकर किसी की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। किंतु अब तो ऐसा नहीं लगता है, कभी-कभी तो शक होने लगता है कि मेट्रो में एसी चालू अवस्‍था में है भी या नहीं। अंदर भीड़ के बीच में फँसकर खड़े होता हूँ तो घुटन होने लगती है। कभी ताज़ी हवा में साँस लेना भी होती है तो अपनी ऊँचाई का लाभ लेकर सिर ऊपर करता हूँ और साँस ले लेता हूँ। अभी तो मुझे मेट्रो के अंदर कोई भी ऐसा करता नहीं दिख रहा है ।
मेट्रो के अंदर देखने पर ऐसा लग रहा है जैसे किसी ग्लास हाउस को देख रहा हूँ। एक ऐसा ग्लास हाउस जिसमें आप ताज़गी नहीं महसूस कर सकते हैं। हाँ ग्लास हाउस तो बहुत खुला-खुला सा अनुभव दिलाता है। मैंने अपने मोहल्ले में अभी-अभी बना एक ग्लास हाउस देखा है। पर अभी तक वहाँ कोई रहने नहीं आया है। उस घर को देखकर हमेशा यही याद आता है कि काश! उस घर के मालिक ने बाहर या अंदर कुछ पौधे लगा दिए होते। पता नहीं अब वहाँ पर क्या हाल होगा। मैंने तो पिछले एक महीने से उस जगह को नहीं देखा। ख़ैर जब मैं अपना घर बनाऊँगा तो इन बातों का ज़रूर ख़्याल रखूँगा।
हाँ, तो मैं मेट्रो के अंदर देख रहा था। पर लोगों के अलावा ज़्यादा कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। मैंने ख़ुद अंदर बैठकर जो देखा है वही सब याद आ रहा है। एलईडी पर चलते हुई उद्घोषणाएँ, मेट्रो के गेट पर लगे रूट मैप्स, साइड में लगे विज्ञापन, हैंडल पर चिपके स्टिकर्स, एक दूसरे से बतियाते लोग, चुपचाप कान में हैडफ़ोन लगाए संगीत की धुन में खोए लोग, या फिर इतने शोर या भीड़ में भी पुस्तक पढ़ते लोग। क्या पता वाकई पढ़ते भी हैं या ढोंग करते हैं। मैं तो ऐसा नहीं कर सकता। वैसे सोचा ज़रूर है कि मेट्रो में पढ़ने की शुरूआत की जा सकती है।
वैसे मेट्रो के अंदर अगर घर बना लिया जाए तो मनुष्यों का हाईटेक इग्लू जैसा लगेगा। हाँ, क्यों नहीं हो सकता। जब हाउसिंग बोट्स हो सकती हैं तो रेल की पटरियों पर दौड़ने वाला घर भी तो बनाया जा सकता है।

अरे!!! घर तो मुझे भी जाना है और 9.15 समय हो गया है। मेरी ट्रेन का समय 10 बजे का है तो मुझे दौड़ना चाहिए। इतने समय से बस मैं ही जड़ होकर खड़ा हूँ पूरे मेट्रो स्टेशन पर बाक़ी सब तो दौड़ती-भागई ज़िंदगी का शिकार हैं। अब मुझे भी शिकार हो जाना चाहिए और दौड़ लगानी चाहिए वरना मेरी ट्रेन छूट जाएगी।


मैंने एक बार कहीं पढ़ा था – “You can observe a lot just by watching.” और ठीक इसके विपरीत “You can see a lot just by observing.” वाकई आज जब असाइनमेंट करने के‍ लिए रवाना हुआ था तब यही पंक्तियाँ थीं मन में कि जो भी दिखाई देगा उसे देखेंगे और देखकर ऑब्ज़र्व भी किया जाएगा। इस असाइनमेंट को लेकर शुरू से जो उत्साह था, वो इसका आख़िरी शब्द लिखने तक बना रहा।
असाइनमेंट की शुरूआत में यही तय किया था कि जो कुछ भी देखूँगा उसके नोट्स क़ाग़ज़ पर उतार लूँगा और बाद में उसे आराम से टाइप किया जाएगा। किंतु एक अलग ही अनुभव हुआ ये असाइनमेंट लिखते हुए भी। जैसे-जैसे अपने नोट्स को पढ़ता जा रहा था और उस वाकये को टाइप करता जा रहा था ऐसा लग रहा था जैसे मैं अभी भी रात के 8-9 के बीच में राजीव चौक स्टेशन पर मूरत की तरह खड़ा हूँ और वो सब घटित हो रहा है। वो ऑब्ज़र्वेशन करते समय ऐसा लग रहा था जैसे दुनिया में मेरा अस्तित्व ही नहीं है। क्योंकि सब कोई इधर-उधर भाग रहे थे बस मैं जड़वत अपनी जगह पर खड़ा सबको देख रहा हूँ। क्या किसी ने मुझे नहीं देखा था।
जैसा कि मैंने असाइनमेंट की शुरूआत में भी अनुभव किया कि जो मैं कर रहा हूँ अगर किसी ने मुझे ये करते देखा तो मुझसे कई सवाल पूछे जा सकते हैं और उनका जवाब देना भी मेरा उत्तरदायित्व होगा। लेकिन एक घंटे का समय कब निकल गया मालूम ही नहीं चला। एक और अंग्रेज़ी लाइन है कि - "He alone is an acute observer, who can observe minutely without being observed.” मैं भी कहीं खो गया था ये काम करते हुए शायद इसलिए ही मेरा अस्तित्व भी किसी को दिखाई नहीं दिया, सिवाय उनके जो आ-जाकर मुझसे हर समय रास्ता पूछते रहे।
यूँ तो कुछ देर अगर लिखने को कह दिया जाए तो हालत ख़राब हो जाती है। हमारी पढ़ाई में वैसे भी लिखने की आदत तो स्कूल के बाद से बहुत कम हो जाती है। और जब यह असाइनमेंट किया तो मुझे ख़ुद आश्चर्य हुआ ये देखकर कि मैं लगातार एक घंटे तक अपनी नज़रे इधर-उधर दौड़ाता रहा और लगातार लिखता भी रहा। जब अंतत: एक घंटा पूरा हुआ तब जाकर ध्यान गया कि अब हाथों में और उंगलियों में दर्द हो रहा है। वरना तो वो एक घंटा पूरी तरह बाक़ी किसी भी चीज़ का होश नहीं रहा। मैं तो ये तक भूल गया कि कहीं कोई मेरे पैर के पास से मेरा बैग उठाकर भाग तो नहीं गया।
असाइनमेंट के दौरान ही जब बार-बार लोगों ने रास्ता पूछा तब अपने व्यवहार के बारे में भी कुछ देखने समझने को मिला। कैसे एक ही बात कुछ ही अंतराल में यदि बार-बार दोहराई जाती है तो हम विचलित हो सकते हैं। किसी अनजान व्यक्ति को रास्ता दिखाना वैसे तो बहुत अच्छा लगता है और भलाई का काम भी है। लेकिन उस दिन कोफ़्त होने लगी थी। ऐसा लग रहा था जैसे ये लोग जानबूझकर मेरे काम में बाधा डाल रहे हैं।
इसके अलावा ही यह भी जाना कि कैसे हमारा मन और हमारा शरीर शांति से खड़े रहने पर किसी भी गतिविधि में भाग न लेने पर कहीं तल्लीन होने पर बस उसी में खो जाता है। मेट्रो पर जो आवाज़ें अंदर जाते ही परेशान कर रही थीं, वो कुछ देर बाद सुनाई देना भी बंद हो गई थीं। हमारा शरीर आस-पास के वातावरण के साथ बहुत जल्दी तालमेल बैठा लेता है।
अब इतना तो साफ़ हो ही गया है कि जो ऑब्ज़र्वेशन एक आदत मात्र था उसे करने के और भी कई तरीके हो सकते हैं। और इस प्रकार के विशेष ऑब्ज़र्वेशन के नतीजे भी अलहदा ही होते हैं।

इति दिल्लीदेशे मेट्रो अध्याये ऑब्ज़र्वेशन पाठ समाप्त!!!

चित्रों के लिए Google देव और MS Word महाराज की जय!

Monday, September 27, 2010

लाइफ़ एट मेट्रो

ऑब्ज़र्वेशन – अवलोकन वो काम जो कोई भी काम करते हुए किया जा सकता है। एक ऐसा काम जो मुझे लगता है कि मैं करना पसंद करता हूँ। किसी के बात करने का ढंग, किसी के बोलने का लहज़ा, किसी के चलने का तरीका, तो किसी के कपड़े पहनने या हाव-भाव बदलकर बात करने का अंदाज़ – ये सब कुछ देखने और अपनी तरह से उसे समझने में मुझे हमेशा ही आनंद मिला है।

भारतीय विद्या भवन में रेडियो एंड टीवी प्रोडक्शन के स्नातकोत्तर का पहला असाइनमेंट भी ऑब्ज़र्वेशन पर ही मिला। हाथ में वो क़ाग़ज़ थामकर जब पढ़ा तो मज़ा आया कि अब तक जो काम बिना किसी उद्देश्य के करता था, इस बार किसी वजह से करने को मिला है। वो भी पढ़ाई के सिलसिले में। उसी वक़्त ज़हन में ये ख़्याल आ गया था कि मुझे कहाँ जाना है और किसी तरह की ज़िंदगी और किस जगह का ऑब्ज़र्वेशन करना चाहिए। मुझे दिल्ली के राजीव चौक मेट्रो स्टेशन में अपने असाइनमेंट का विषय दिखाई दिया। और उसी शाम एक दोस्त से इस बात की चर्चा करते हुए ही इस असाइनमेंट का शीर्षक भी मिल गया ‍मुझे। उसने कहा लाइफ़ इन ए मेट्रो और हमने कहा कि हमारे असाइनमेंट का शीर्षक होगा लाइफ़ एट मेट्रो
मूलत: इन्दौर शहर से दिल्ली में बसने का अनुभव वैसे ही ले रहा हूँ। मेरे लिए ख़ुद एक मेट्रो सिटी में आकर यहाँ की आबोहवा में ख़ुद को ढालने, और आसपास के माहौल को अपने जैसा बनाने की जद्दोजहद तो पहले ही शुरू हो चुकी है। अब जब कुछ ऑब्ज़र्व करने की बात आई तो सबसे पहले दिमाग़ में मेट्रो स्टेशन पर दौड़ती मेट्रो ट्रेन का ही विचार आया। सोचा क्यूँ न कुछ वक़्त उस जगह पर चला जाए और बैठा जाए जहाँ पर मेट्रो की गति के साथ ही आम जीवन भी बहुत तेज़ भागने लग जाता है। जब सोचा कि मेट्रो स्टेशन पर ही एक घंटा बिताना चाहिए तो बिना किसी शक़-ओ-शुबह के राजीव चौक मेट्रो स्टेशन ही पहली पसंद बना, जो अपने आप में मेट्रो स्टेशन कम और मेट्रो जंक्शन ज़्यादा है।
यह असाइनमेंट कैसे शुरू होगा ‍और कैसे समाप्त होगा इसकी उलझन तो बनी हुई थी। फिर भी कहीं से तो शुरू करना ही था। इसलिए एक प्रक्रिया तय कर ली पहले ही किस तरह से हमें चीज़ों को देखने होगा और किस तरह मैं उन्हें कलमबद्ध कर सकूँगा। यही विचार किया कि मेट्रो स्टेशन पर एक घंटा बिताते समय हाथ में क़ाग़ज़ और कलम दोनों रहेंगे विचार, मन और आँखें जिधर भी दौड़ेंगी बस उन बातों को शब्दों में बाँध लूँगा ताकि बाद में याद करने में परेशानी न हो। असाइनमेंट मिलने के 2-3 दिनों तक तो बस ख़्याली पुलाव ही पकते रहे कि आज जाता हूँ राजीव चौक, कल चला जाऊँगा। अंतत: एक दिन अचानक शाम को फ़ितूर चढ़ा कि दो-चार दिन की छुट्टी है तो क्यों न इन्दौर चला जाए। फिर याद आया कि असाइनमेंट के लिए अभी तक मेट्रो पर जाकर समय नहीं बिताया है। हालाँकि मेट्रो से सफ़र तो रोज़ ही करता हूँ लेकिन ऑब्ज़र्वेशन के लिए राजीव चौक पर एक घंटा बिताना ज़रूरी था। सो दुनिया के सभी तथाकथित महत्वपूर्ण कामों को छोड़कर 20 अगस्त 2010 को लगभग आठ बजे हम मेट्रो स्टेशन पहुँच गए। इस उम्मीद के साथ कि एक घंटे में अवलोकन कार्य पूरा करके हम नौ बजे निकल जाएँगे और 10 बजे अपनी इन्दौर की ट्रेन भी पकड़ लेंगे।
जैसी कि उम्मीद थी – राजीव चौक मेट्रो स्टेशन या जंक्शन कह लें, भीड़ से पूरी तरह खचाखच भरा हुआ। मेट्रो के आने जाने का शोर और उन आवाज़ों के बीच अपनी बातों में गुनगुन करते लोग। सबसे पहले मन में यही विचार आया कि आख़िर खड़ा कहाँ हुआ जाए जहाँ से सब कुछ देखने और समझने का मौका मिलेगा। चारों तरफ़ नज़रें दौड़ाई और यकायक स्टेशन के बीचों बीच बने ब्रिज पर चढ़ गया। वहाँ चढ़कर एक बार नीचे नज़र डालकर देखा तो सब कुछ दिखाई दे रहा था। ब्लू लाईन के दोनों प्लेटफ़ॉर्म्स, येलो लाइन का प्रवेश द्वार और दो निकास द्वार भी। मन में विचार आया कि यहाँ से बहुत कुछ देखने को मिलेगा एक साथ। हमने कंधे पर से अपना बैग नीचे रखा, घड़ी देखी और नोटपैड निकाल कर खड़े हो गए। शुरूआत में ऐसा लगा मानो यहाँ खड़ा होकर में किसी गेट का चौकीदार हूँ जो आने जाने का समय नोट करने के लिए एक रजिस्टर बना कर गेट पर बैठ जाता है। पर यहाँ चौकीदारी किसी और चीज़ की करनी थी। स्टेशन पर जमा भीड़ के हाव-भाव की, उनकी हरकतों की उनकी जल्दबाज़ी की, मेट्रो के शोर की, लोगों की आवाजाही की और हर तरह की चौकीदारी जो मैं उस एक घंटे में कर सकता था।
     यूँ तो अपने तरीके का से अवलोकन प्रक्रिया या ऑब्ज़र्वेशन करने में अलग ही आनंद आता है। किंतु जब पहली बार किसी उद्देश्य पूर्ति के लिए समय और स्थान तय करके ऑब्ज़र्व करने बैठा तो लगा कि आज कोई बहुत बड़ा तीर मारना है। मन में विचारों की उथलपुथल मचने लगी। डर सा भी लगा कि एक तो अनजान शहर, वो भी राजधानी दिल्ली, ऊपर से बढ़ी हुई दाढ़ी के साथ हाथ में क़ाग़ज़ और कलम लिए दिल्ली के राजीव चौक जैसे व्यस्ततम् मेट्रो स्टेशन पर कुछ लिख रहा हूँ। समय भी अनुकूल नहीं था, 15 अगस्त का त्यौहार 4 दिन पहले ही विदा हुआ था। दिल्ली इन दिनों में तो ख़ास तरह से सुरक्षित बनाई जाती है। उस पर मेरा यूँ मुँह उठाकर कुछ करना ग़लत भी समझा जा सकता था। वाकई अगर किसी सुरक्षाकर्मी या गार्ड ने ठीक से मुझे ऑब्ज़र्व किया होता तो शायद एक-दो घंटे की पूछताछ और तसल्ली करने के बाद ही मुझे छोड़ा जाता। पर शुक्र है ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और मुझे आसानी से अपना ऑब्ज़र्वेशन करने का अवसर मिला। और अंतत: मैंने अपना काम शुरू भी कर लिया।

राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर कुछ ऑब्ज़र्व करने का उद्देश्य लेकर मैं ब्रिज पर खड़ा हो गया। मेरी दाईं और बाईं तरफ़ सीढ़ियाँ और सामने ब्रिज का पूरा हिस्सा जो इस प्लेटफ़ॉर्म को दूसरे से जोड़ता है। दोनों तरफ़ नज़रें घुमाकर देखा तो बस लंबी-लंबी कतारें दिखी जिनमें लोग मेट्रो के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। वो सभी कतारें और उनमें खड़े लोग बिल्कुल शांत हैं। सब अपने कामों में तल्लीन है, कोई फ़ोन पर बात करने में, तो कोई एक दूसरे को ताकने में, तो कोई बार-बार मेट्रो के आने का समय देख रहा था। अगली मेट्रो बस दो‍ मिनट में ही प्लेटफ़ॉर्म पर आने वाली थी। सामने देखा तो कई अनजान चेहरे मेरी तरफ़ बढ़े आ रहे थे। ऐसा लगा जैसे अभी आकर हाथ मिलाएँगे और पूछेंगे क्या बात है जनाब? यूँ अकेले खड़े होकर क्यों क़ाग़ज़ काले कर रहे हो? चक्कर क्या है हमें भी बता दो जिसका शायद मेरे पास कोई जवाब नहीं होता। और अगर उन अजनबी लोगों से कह भी देता कि ऑब्ज़र्वेशन कर रहा हूँ सभी चीज़ों का तो उन्हें ये पूरी कहानी समझाना बड़ा मुश्किल सा काम लगता।
इतना सोचना चल ही रहा था कि अचानक ध्यान अपने पैरों की तरफ़ गया जो कुछ एहसास करा रहे थे। ‍उस ब्रिज पर कई लोग सामने से आ रहे थे। और वह ब्रिज ऐसा लगने लगा मानो भूकंप के झटकों की मार झेल रहा है और अभी अगर 20-25 लोग और चढ़ गए ब्रिज पर इधर से उधर आने जाने के लिए तो ये तो भर-भराकर गिर ही जाएगा। और इसके साथ मैं अपने भी अपने हाथ-पैर तुड़वा बैठूँगा। बिलकुल वो अनुभव याद आ गया जैसा कि किसी असली रोड़ ब्रिज पर खड़े होने पर लगता है। विशेषकर जब कोई ट्रक निकलता है वहाँ से तो लगता है कि गार्डर के साथ पूरा ब्रिज भी हिल गया है। और ये किस्मत है हमारी कि ब्रिज के साथ हम भी सही सलामत खड़े हैं।
अचानक एक बंधु मेरे नज़दीक आते हैं और पूछते हैं भाई! ये शादीपुर के लिए मेट्रो कहाँ से मिलेगी। इस जगह का नाम तो सुना हुआ था, पर अभी दिल्ली में आए इतना भी समय नहीं हुआ था कि किसी को रास्ता समझा सकूँ। मैंने अंग्रेज़ी में क्षमा माँगते हुए उस भाई को किसी और अनुभवी से पूछने का कह दिया। मैं पैड और पेन लेकर खड़ा था तो शायद उसे लगा होगा कि मैं पुराना चावल हूँ दिल्ली का, यहाँ बहुत समय से पढ़ रहा हूँ और यहाँ के बारे में जानता हूँ और शायद उसकी मदद कर सकता हूँ। बुरा लगा कि उसकी मदद नहीं कर सका। आपके कपड़े, आपके हाथ में रखी चीज़ें और आपके आसपास का वातावरण भी कितना भ्रम पैदा कर देता है आपके व्यक्तित्व को लेकर यही विचार फिर मन में चलने लगे ।
मेट्रो प्लेटफ़ॉर्म्स पर लगे एलईडी टाइमर्स बता रहे थे कि मेट्रो बस एक मिनट के अंदर ही प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँच जाएगी। जो कतारें 2-5 से शुरू हुईं थीं अब तक बहुत लंबी हो चुकी थीं। इतना लिख ही रहा था कि मेट्रो अपना हॉर्न बजाती हु्ई प्लेटफ़ॉर्म पर प्रवेश कर गई। दरवाज़ा खुला और अंदर की भीड़ ऐसे बाहर निकली जैसे वो किसी पिंजरे में कैद थे और अंदर उन पर कोड़े बरसाए जा रहे हों। गेट खुलते ही धड़धड़ करके आधा डिब्बा खाली हो गया होगा। कतार की भीड़ अंदर चढ़ी और मेट्रो रवाना भी हो गई। उस समय ट्रैन के गेट पर ही एक अम्मा फ़ँस गई थी। हरे रंग का सुट पहने और दुपट्टे को अपने सर पर ऐसे डाले हुए जैसे किसी का सदका करके आ रही होंगी। शायद उन्हें इस स्टेशन पर नहीं उतरना था और वो बदकिस्मती से गेट पर ही खड़ी थी। भीड़ ने तो स्टेशन पर गेट खुलते ही अपनी मंज़िल आने की ख़ुशी में बिना इधर उधर देखे धक्का मुक्की की और जैसे-तैसे बाहर आने का प्रयास करने लगे। कोई बेरहमी से अम्मा को धक्का दे गया, कोई धक्का देने के बाद सॉरी कहकर आगे निकल गया। वो अम्मजी कोशिश करके गेट से हटने में सफल हो ही गईं आख़िरकार। लेकिन उसमें भी उनकी मेहनत कम और गेट से अंदर की ओर घुसती भीड़ का योगदान ज़्यादा रहा होगा।
विचारों की धुन में अगली मेट्रो भी प्लेटफ़ॉर्म पर आ गई। वाकई मेट्रो ट्रेन के आने के पहले तो बहुत ही सभ्य और शांत कतारें दिखाई देती हैं। किंतु बाद में बस लोगों की भीड़ और रेलमपेल ही दिखाई देती है। ठीक वैसे जैसे आजकल भी गाँवों के मेलों में दिखाई देती है। फ़र्क केवल यह है कि यहाँ, मेट्रो के मेले में जींस-पेंट, टीशर्ट, टॉप, सलवार-कमीज़, वेस्टर्न आउटफ़िट्स में लिपटे लोग हैं और वहाँ मेलों में धोती-कुर्ते, लहंगा या जनानी धोती का बोलबाला होता है। राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर व्यस्ततम् समय में सच ऐसा ही मेला देखने को मिला मझे। जहाँ झूले नहीं थे बस हाईटेक मशीनें दिख रहीं थी। एक टोकन के स्पर्श से खुलन-बंद होने वाले गेट, अपने आप ऊपर-नीचे जाती सीढ़ियाँ, टिमटिमाते सूचना पटल और भी बहुत कुछ।

इतने में किसी लड़की ने आकर चाँदनी चौक की मेट्रो के बारे में पूछा जो मैं बता सकता था क्योंकि मुझे उस मेट्रो रास्ते के बारे में पता जो था। इसके बाद ही एक महिला, वृद्धा, एक आदमी और एक बच्ची ब्रिज पर चढ़े और उन्होंने मयूर विहार मेट्रो का रास्ता पूछा। इन दोनों को सही जानकारी देने का सुख मिला मुझे। काश मुझे शादीपुर के बारे में भी पता होता तो उस पहले भाई की भी मदद कर सकता। पर आप एक ही समय में सबको ख़ुश नहीं कर सकते हैं। मन में आया कि भले ही आप सबकुछ न जानते हों लेकिन जितना भी जानते हैं उसमें भी लोगों की मदद की जा सकती है।
प्लेटफ़ॉर्म पर लगी मशीनों के बारे में सोच ही रहा था और वहीं पर लगे LCD स्क्रीन्स पर आँख चली गई। जिन पर म्यूट आवाज़ में विज्ञापन चल रहे थे। विज्ञापन में धोनी और आरपी सिंह आम्रपाली का प्रचार करते दिखाई दे रहे थे। आम्रपाली तो आभूषणों का एक ब्रांड है। हो सकता है शादी के बाद धोनी साहब भी आभूषणों का विज्ञापन करने के लिए ब्रांड बन गए हों। विज्ञापनों में वैसे भी सब कुछ संभव हो सकता है। नहीं-नहीं ये तो आम्रपाली कंस्ट्रक्शंस का विज्ञापन है। वैसे अभी हाल ही में तो एशिया कप हुआ था। और अभी भी त्रिकोणीय श्रृंखला चल ही रही है श्रीलंका में जहाँ पर भारतीय क्रिकेट टीम खेल रही है। उस श्रृंखला में क्या चल रहा है इस बारे में तो कोई ख़बर ही नहीं है मुझे। बड़े दिन से पेपर नहीं पढ़ा और न ही टीवी पर समाचार देखने का मौक़ा मिला है। न ही ये पता है कि अब कौनसा रियलिटी शो शुरू हुआ है। हाँ मेट्रो में सारेगामापा के विज्ञापन ज़रूर देखे हैं। काश वो देख पाता। अब जब तक टीवी की व्यवस्था नहीं होती तब तक कम से कम समाचार पत्र तो पढ़ने ही हैं रोज़। उन्हें रोज़ पढ़ने की आदत दिल्ली आते ही यहाँ अपना आशियाना बसाने के चक्कर में छूट सी गई है जिसे फिर से जीवित करना पड़ेगा। वैसे मेट्रो स्टेशन पर इतनी भीड़ में भी म्यूट विज्ञापन असर करते हैं। वैसे भी अगर इनमें आवाज़ होती तो कौन सा हर एक यात्री के कान में पहुँचकर वो विज्ञापन उसे प्रभावित करने की गारंटी ले लेता।
विज्ञापन तो म्यूट ही थे लेकिन स्टेशन का शोर म्यूट नहीं किया जा सकता था। मेरे पीछे ही येलो लाइन की मेट्रो का प्रवेश और निकास द्वार था। निकास द्वार जहाँ से येलो लाइन से आए यात्री बाहर निकलते हैं वहाँ एक गार्ड खड़ा होकर हाथ हिलाकर सबको बाहर जाने का रास्ता दिखाकर कसरत कर रहा था। बिल्कुल वैसे जैसे सड़कों पर टैफ़िक पुलिसवाले जवान करते हैं। फिर भी वो लगो इतने मोटे क्यों होते हैं। पता नहीं शायद पेट का बाहर निकलना एक सफल और विशेषकर अनुभवी हवलदार होने की शारीरिक निशानी होती होगी। देखते ही देखते वहीं येलो लाइन से भीड़ का एक जत्था निकला और दौड़कर ब्लू लाइन प्लेटफ़ॉर्म पर एक नई कतार बना ली। और बाक़ी लोग दौड़ते भागते ब्रिज पर चढ़कर उस पार जाने लगे। मेरे सामने का सूना सा ब्रिज एक बार फिर भर गया और भूकंप के झटके फिर महसूस होने लगे। दिल्ली की सड़कों पर वैसे मैंने किसी को भी दौड़ते नहीं देखा, पर मेट्रो स्टेशन पर आप किसी को भी दौड़ते देख सकते हैं सिर्फ़ मेट्रो पकड़ने के उद्देश्य के लिए। मैं तो भागता हूँ ‍क्योंकि क्लास के लिए देरी हो जाती है। या फिर कहीं जल्दी पहुँचना होता है। पर यहाँ तो दिल्ली के ‍लोग बस मेट्रो पकड़ने के लिए ही दौड़ते हैं।
इस बार प्लेटफ़ॉर्म पर दाखिल हुई 1208 ब्लूलाइन मेट्रो ने बहुत पास आकर हॉर्न बजाया जिससे मेरा ध्यान उधर चला गया। मेट्रो जहाँ रूकती है वहाँ गेट के सामने ही दो कतारें बन जाती हैं और बीच में खाली जगह छोड़ी जाती है ताकि मेट्रो के यात्री आसानी से निकल सकें और फिर ये कतारे वाले लोग अंदर जा सकें। ऊपर बिज्र से खड़े होकर देखने पर ये नज़ारा ऐसा लगता है जैसे कि इंसानों ने दो पटरियाँ बना ली हैं कतारें बनाकर और जब ट्रेन आकर रुकती है तो अंदर सवार लोग पत्थरों की तरह इन पटरियों के बीच से लुढ़कते हुए बाहर आने का रास्ता बना रहे हैं।
मेट्रो स्टेशन पर हर कोई रास्ता ही पूछ रहा है क्या? और क्या बस मैं ही ऐसा बंदा हूँ पूरे स्टेशन पर जिसे सब जानकारी है। इस बार एक लड़का आया और कश्मीरी गेट की मेट्रो का पूछकर चलता बना। एक लड़की आई लगेज के भारी बैग को रेलिंग से टिकाकर नई दिल्ली जाने वाली मेट्रो के बारे में पूछने लगी। जवाब मिलते ही पसीना पोंछा और उस ओर चली गई जिस तरफ़ मैंने इशारा किया था। वो भी चलती बनी और उसके काँपते हु्ए अपने लगेज को उठाकर जाने को मैं देखने लगा। लड़कियों के हैंडबैग्स इतने भारी होते हैं। वो उनमें कितनी ही चीज़ें भरकर घूमती हैं जो महीने में एक बार काम आती होंगी। तो क्या इस तरह के लगेज में भी लड़कियाँ कुछ ऐसा सामान भरती होंगी । उफ़ ये कैसा सवाल आ गया दिमाग़ में जिसका जवाब ढूँढने बैठूँगा या सोचूँगा तो असइनमेंट की मियाद ऐसे ही निकल जाएगी। वैसे जिस ओर वो लड़की गई वहीं पर ब्लॉक ए और ब्लॉक एफ़ के निकास द्वार हैं। राजीव चौक का ब्लॉक ए पंचकुइया और खड़गसिंह मार्ग का निकास है; और ब्लॉक एफ़ से निकलकर आप जनपथ और बाराखंभा रोड़ के लिए जाते हैं। मैं भी कई बार राजीव चौक से बाहर निकलने में भ्रमित हुआ हूँ। अभी दो दिन पहले ही तो मुझे रीगल (कनॉट प्लेस) जाना था। और मैं जनपथ वाले रास्ते से निकलने के बावजूद भी सीपी के गोल-गोल चक्कर लगाकर फिर वहीं पहुँच गया था। वाकई जितनी गफ़लत राजीव चौक स्टेशन के अंदर सही मेट्रो पकड़ने को लेकर होती है उतनी ही यहाँ से बाहर सही रास्त पर निकलने में भी होती ही है। इस बीच मेट्रो ट्रेनें आ रही हैं, जा रहीं है और कतारों और उनमें उलझे लोगों की रेलमपेल अब भी जारी है।
यहाँ इस स्टेशन पर कितना अच्छा सिस्टम देखने को मिलता है। जैसे ही मेट्रो आती है उसके हर दरवाज़े पर एक गार्ड अवतरित हो जाता है। ऐसा लगता है कि या तो मेट्रो ख़ुद कोई सेलिब्रिटी है या फिर मेट्रो से उतरने वाले सभी लोग डीएमआरसी (Delhi Metro Rail Corporation) के कोई ख़ास मेहमान हैं। ख़ैर इसी बहाने कुछ देर के लिए कम से कम इतनी भीड़ में भी अनुशासन तो बना रहता है। अब भारतीयों को वैसे भी अनुशासन में रहने के लिए वर्दी का डर ज़रूरी होता है। ट्रैफ़िक पुलिस का डर, पुलिस का डर, शिक्षकों का डर, आर्मी वालों से डर, और यहाँ सिक्यूरिटी गार्ड्स का डर।
रात बढ़ती जा रही है और साथ ही साथ मेट्रो में भीड़ भी कम होती जा रही है। गार्ड्स भी अब खड़े-खड़े राहत की साँस ले रहे हैं । ब्रिज पर भी अब भीड़ नहीं है। इतनी शांति के बीच ही राजीव चौक स्टेशन की बनावट पर नज़र गई। पूरी तरह से गोलाई में बना है यह स्टेशन। जहाँ मैं खड़ा था, वहीं ऊपर छत पर गुंबद के समान एक गोला भी बना हुआ था। ठीक वैसा जैसा कि मुग़लों के शिल्पों में होता था। या गुरूद्वारों या मस्जिदों में होता है। और उसी के किनारों पर फ़्लड लाइट्स लगी हुईं थी। एक सफ़ेद, एक पीली। फिर सफ़ेद फिर पीली। ये रंगों का खेल तो समझ नहीं आया बिलकुल भी कि आख़िर ऐसा क्यों किया गया है। लेकिन ये लाइट्स देखकर ऐसा लगा जैसे कि मैं किसी स्टेडियम में पिच के बीचोंबीच खड़ा हूँ और राजीव चौक में चल रहे खेलों की जानकारी लिखता जा रहा हूँ जो मैं बाद में लोगों को सुनाऊँगा। इसी तरह का एक सीन राजकुमार संतोषी की ख़ाकी फ़िल्म में देखा था जो बहुत ख़ूबसूरत बना था। जहाँ अक्षयकुमार दौड़ते हुए स्टेडियम में पहुँच जाते हैं और अचानक से सभी फ़्लड लाइट्स एक साथ चालू हो जाती हैं। स्टेडियम में ही फिल्माया एक और सीन याद आ गया जो मुझसे शादी करोगीफ़िल्म का हिस्सा था। लेकिन वो सीन को दिन में फ़िल्माया गया था। उस सीन का तो यहाँ से कोई वास्ता ही नहीं लेकिन फ़्लड लाइट्स और स्टेडियम की बात से वो याद आ गया था।
आज भी इन लाइट्स को देखकर ऐसा लग रहा है कि शायद ये मुझ पर फ़ोकस करने के लिए लगाई गई हैं। आज राजीव चौक पर बीचोंबीच में खड़ा हूँ और ये बात सभी को पता होनी चाहिए। ये फ़ल्ड लाइट्स मेरे लिए स्पॉट लाइट्स का काम कर रही हैं। केंद्र बिंदु बनना तो वैसे भी हर मनुष्य की इच्छाओं में होता है। कोई खुलकर ये स्वीकार लेता है और कोई अपने अहंकार या अभिामन में नहीं मानता। मैं इस चकाचौंध में खो ही गया था कि दो कपल्स और एक उनका दोस्त सीधे सामने से मेरे‍ बिलकुल पास आकर रूक गए। और वही अकेला लड़का एक आह लेकर बोला अरेऽऽऽ! CCD”। शायद वो लोग कुछ देर और साथ में बैठकर बतियाना चाहते थे पर CCD देखकर ठंडे पड़ गए। आजकल तो हर युवा की अपनी पसंद है। कोई ‍पिज़्ज़ा हट का शौकीन है, तो कोई डॉमीनोज़ का मुरीद है, किसी को बरीस्ता की चुस्कियाँ पसंद हैं, कहीं पर CCD से आगे सोचा ही नहीं जा सकता। सबकी अपनी-अपनी पसंद है।
वैसे व्यस्ततम स्टेशंस पर इस तरह के कॉफ़ी ज्वॉइंट्स बनाना बहुत बढ़िया भी है। लेकिन DMRC भी दोगले मानदंड अपनाता है। यहाँ मुझे याद आ गया कि मेट्रो स्टेशन पर ज़्यादा समय बिताने से पेनल्टी चार्जेस भी काट लिए जाते हैं। मेरे साथ भी ऐसा हुआ था एक बार। अब या तो आप मेट्रो स्टेशन पर इस तरह के रेस्त्राँ न बनाएँ और अगर बना रहे हैं और लोग वहाँ बैठ कर बातें करने में समय बिता रहे हैं तो फिर आप उनसे पेनल्टी क्यूँ लेते हैं। वो भी मेट्रो स्टेशन पर ज़्यादा समय बिताने के लिए। वैसे तो मेट्रो हर 5 मिनट में आती है, तो यह तर्क देना कि यात्री इस तरह की जगहों पर बैठकर इंतज़ार कर सकते हैं, ये भी तो ग़लत ही होगा। राम जाने किस उद्देश्य को लेकर इस तरह के रेस्त्राँ खोले गए हैं मेट्रो स्टेशंस पर। और पता नहीं क्यूँ मेट्रो स्टेशन पर अधिक समय बिताने के बदले पेनल्टी चार्जेस काटे जाते हैं।
फिर किसी के टकराने की आवाज़ से ध्यान भंग होता है। देखा तो पाया कि सामने ब्रिज पर से एक गंजा आदमी सिर खुजाता हुआ मेरी ओर आ रहा था। कोने पर आते ही एक बदहवास लड़की उससे टकरा गई। वो आदमी तो आगे बढ़ गया और ये मोहतरमा हड़बड़ा कर अपना मेट्रो टोकन गिरा देती है। उसे उठाने के चक्कर में कंधे पर से बैग फिसल जाता है। कहीं पर भी जल्दी जाने या पहुँचने के लिए कितनी हड़बड़ाहट होती है । मेरे साथ भी कई बार ऐसा ही होता है। उसे देखकर चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान आ गई। या यूँ कह सकते हैं कि ख़ुद के बारे में सोचकर मुस्कुरा लिया।
बहुत देर से इधर-उधर देख रहा हूँ। आते-जाते पूछते, टकराते लोगों की ज़िंदगी को पढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ। लगता है मैंने ऑब्ज़र्वेशन के लिए क्या सही स्थान चुना है ।  किसी पार्क में जाकर बैठा जा सकता था, किसी मॉल के बाहर समय बिताया जा सकता था, या फिर अपने ही घर की गैलरी से मोहल्ले को आँका जा सकता था, फिर क्या सूझा कि मेट्रो स्टेशन आकर असाइनमेंट पूरा करने का विचार आया? यहाँ सब कुछ अलग सा है। सब कुछ कृत्रिम तौर पर बनाया गया है। ये प्लेटफ़ॉर्म, ये लाइट्स, ये मशीनें, ये होर्डिंग्स, एलिवेटर्स सब कुछ। बस एक बात है जो यहाँ पर अलग है वो है दौड़ती भागती ज़िंदगी! संभवत: आज के दिन उसी को पढ़ने और देखने का मौक़ा मिला है। इसलिए ही तो इतना समय हो गया फिर भी मन में लोगों और उनके व्यवहार और ख़ुद के अनुभव की ही बातें चल रही थीं। जिंदगी को देखते रहने में अन्य आकार-प्रकार, निर्जिव वस्तुओं की ओर कम ही ध्यान गया।

अगली पोस्ट में जारी रहेगी "लाइफ़ एट मैट्रो"........

चित्रों के लिए हमेशा की तरह "Google" और "MS Word" का धन्यवाद!!!

Tuesday, September 7, 2010

दिल्ली डायरी के पन्नों की शुरूआत...

पिछली पोस्ट में ये लिखा था कि बाक़ी कहानी दिल्ली जाकर कहूँगा...

अब दिल्ली आए लगभग एक महीना हो चुका है। और इस बीच भी एक बार इन्दौर की रोमांचकारी यात्रा कर चुका हूँ। रोमांचकारी यात्रा इसलिए क्योंकि इस बार सामान्य दर्ज़े की यात्रा हुई। एक महीने में दिल्ली की आबोहवा में ढलने की जद्दोजहद भी शुरू हो चुकी है। और यहाँ की जीवनशैली किस कदर हावी हो जाती है एक सामान्य इंसान पर इसका अनुभव भी कर चुका हूँ। क्योंकि हर शाम को 10 मिनट के लिए ही सही ''राम-राम'' कहने के बहाने पूरे इन्दौर का चक्कर लगा लेने वाला इंदौरी भी यहाँ आकर महीने भर तक मात्र 5-8 किमी. दूर रहने वाले परिवारजनों और मित्रों से नहीं मिल पाता है। मिलना तो दूर की बात, इंटरनेट की बदौलत ही बात होने लगती है।

ख़ैर भरतीय विद्या भवन में अगला एक साल गुज़ारने की अवधि शुरू हो चुकी है। और यहाँ हर प्रांत से ताल्लुक रखने वाले दोस्त भी मिल गए हैं। दोस्तों की बात चाहे दिल्ली से शुरू करें तो मेरठ, देहरादून, पंजाब, हरयाणा, नेपाल, पहाड़ी, यूपी, बिहार और विदेश के चक्कर लगा कर आ चुके दोस्तों से होकर वापस दिल्ली आकर बात ख़त्म होती है। शुरूआती दिनों में हर मुद्दे पर अलग-अलग राय लेकर चलने वाले लोगों के बीच बहस का दौर देखने को मिलता था। फिर आप गांधीजी के पक्षधरों से मिल लें या फिर नाथूराम गोड़से के कदम को सही ठहराने वाले लोगों से। कांग्रेस के झंडाबरदारों की बात कर लें या फिर गुलज़ार में रचने-बसने की कोशिश करते बर्गरयुगीन नौजवानों की, या फिर पसंद-नापसंद के झंझट से दूर लिंकिन पार्क के शौकीनों से मिल लें। एक तरफ़ मेट्रो में लड़कियों को अपने फ़ोन नंबर की चिट पकड़ाने वाले को देख लें, या फिर खेलों में अपना भविष्य न बन पाने के ग़म में आँखें गीली करने वाले लड़के से मिलें। मालबोरो से गिरती राख के धुएँ के बीच भी खड़े रहने को मिलता है, तो सड़क पर दुकान लगाने वालों से बड़े चाव से चिप्स और भेल ख़रीदने वालों के बीच भी रहने को नसीब होता है। बॉयफ़्रेंड के लिए रोने वाली लड़की दिखती है, तो अपनी पहचान को ठेस पहुँचाने वाले लड़के को चिढ़ाने वाली लड़की भी खिलखिलाती है। वाकई बहुत से रंग दिखते हैं राजधानी में। और हर रंग की अपनी अलग सीरत और असर भी है। उम्मीद है दिल्ली में गुज़रने वाला ये साल बहुत कुछ सीख देने वाला होगा।

बात बीवीबी (भारतीय विद्या भवन) की चल रही है। तो यहाँ के मीटिंग पॉइंट और यहाँ घटने वाले बेसिर-पैर की मस्ती और संवेदनशील मुद्दों पर बहस को भी प्रकाश में ले आता हूँ। कॉलेज से निकलते ही अगले कुछ पल लगभग सभी भवनाइट्स इधर का रूख कर लेते हैं। जैसे सभी स्टूडेंट्स के मिलने का ठिया बन गया हो। इन्दौर की गली-गली में बसे साँची पार्लर्स से काफ़ी मिलते-जुलते ठिये हैं यहाँ पर भी। ख़ैर बात आज की करता हूँ। आज भी हमेशा ‍की तरह ही मीटिंग पॉइंट पर हमेशा की तरह ही मस्ती चल रही थी और अचानक दो दोस्तों के बीच में इंडिया बेहतर है या फिर विदेश का कोई शहर, इस मुद्दे पर विचारों का आदान-प्रदान शुरू हो गया। उन पाँच लोगों के बीच खड़ा में बस सुनता रहा, समझने की कोशिश करता रहा कि किसका पक्ष यर्थाथ के कितना नज़दीक है और कौन भावनात्मक तौर पर अपने विषय या पक्ष से जुड़ा है। यहाँ ये कहने की ज़रूरत नहीं कि विदेश की तरफ़दारी यर्थाथ के आधार पर हो रही थी और भारत का पक्ष हमेशा भावनात्मक पहलू में लिपटा होता है। चूँकि ये कोई बहस नहीं थी, इसलिए बात अपनी-अपनी समझ पर ख़त्म हो गई। अब बीवीबी की बात निकली तो अचानक फिर ये बात ज़हन में आ गई।

ऐसा क्यूँ होता है कि किसी भी स्थान या देश की तस्वीर को साफ़ तौर पर देखने के लिए किसी अन्य देश से तुलना करना ही ज़रूरी हो जाता है। क्या ऐसा किए बिना हम अपनी अच्छाई या बुराई को नहीं आँक सकते। यक़ीनन विदेशों में हर काम करने का एक निश्चित तरीका माना जाता है। जो नियम और क़ानून की सीमाओं में होता है। चाहे वो धर्म की बात हो, परिवार की बात हो, सार्वजनिक स्थानों पर लोगों का रवैया हो, या फिर सड़को पर दौड़ती गाड़ियों की गति ही क्यों न हो। हर चीज़ निर्धारित है। या विदेशी पक्षधरों की ज़ुबान में कहें तो ''मैंटेंड और डिसिप्लिन्ड है''। और मैं स्वयं भी ये मानता हूँ कि ये सही भी है। लेकिन इसे आधार बना कर आख़िर हम क्यों भारत को किसी स्केल पर नंबर दिए जाते हैं। हर भारतीय ये मानने से नहीं कतरा सकता कि भारत में कई कमियाँ हैं, कई‍ सामाजिक और सियासती बुराइयाँ भी हैं। लेकिन मैं घर पहुँचते हुए भी इसी नतीजे पर पहुँचा कि, 'किसी भी तरह की तुलना के आधार पर मैं अपने देश को अच्छा या बुरा नहीं कह सकता' बल्कि इसे इसके ही परिप्रेक्ष्य में देखकर ही हम सही या ग़लत का फ़ैसला कर सकते हैं।

वैसे लड़के सही होते हैं या लड़की, मुर्गी पहले आई या अंडा इनकी तरह यह बहस भी निरंतर है कि भारत कितना सही है और ग़लत। कुछ मुद्दे तो शायद शाश्वत बहस के लिए ही होते हैं। आज की कहानी इतनी ही सही। पर हाँ अब दिल्ली डायरी के पन्ने काले होते रहेंगे गम्मत पर। और इसकी पहली किस्त जल्द ही पोस्ट करूँगा जिसमें बीवीबी में मिले मेरे पहले "असाइनमेंट ऑन ऑब्ज़र्वेशन" की पूरी  कहानी आप सभी के साथ भी साझा करूँगा। इस असाइनमेंट में दिल्ली मेट्रो की मेरी अपनी समझ का झलक आपको मिल ही जाएगी। असाइनमेंट में कितने मार्क्स मिलेंगे ये तो कल पता चलेगा लेकिन उसे आपके बीच रखकर कम से कम अपने अनुभव को तो आप सभी से बाँट ही सकूँगा।

Friday, August 6, 2010

आँसू एक पुरूष के...

चार साल पहले इस ब्लॉग का नाम रखा था "गम्मत"। क्योंकि तब गम्मत सिर्फ़ मस्ती थी और मालवा में रहने का असर था इस नाम को चुनने में, किंतु अब लगता है कि गम्मत पूरी तरह बस गई है मुझमें। मेरे हर काम में। अभी जीवन में जितनी गम्मत चल रही है उससे तो यही लगता है कि गम्मती की गम्मत ताउम्र ज़िंदा रहने वाली है। ख़ैर ज़्यादा समय नहीं है फ़िलहाल इसलिए सीधे मुद्दे पर आता हूँ।

आज इंदौर छोड़कर जा रहा हूँ। पंद्रह दिनों पहले दिल्ली गया था ये सोचकर कि वापस इंदौर आ जाऊँगा ‍पर अब सालभर के लिए जा रहा हूँ दिल्ली अपनी पढ़ाई के सिलसिले में। अभी जब वापस इंदौर आया तो सबसे मिलने और कुछ पल साथ बिताने में ही हफ़्ता बीत गया। दो बार तो सुबह घर से बिना नहाए निकला और रात तक घर की ओर रूख़ भी नहीं कर पाया। परसो भी एक ऐसा ही दिन रहा जब इंडियन कॉफ़ी हाउस (ICH) पर कुछ दोस्तों से मिलने का समय तय हो गया था। गनीमत से इस बार मैं सबसे पहले पहुँच गया और बाकियों के इंतज़ार के दौरान ICH ने एक याद और दे दी मुझे। वहीं बाहर एक इंसान साथ में खड़ा था, एक नज़र उसे देखा और विचलि‍त हो गया था। दो मिनट बाद ही उस बंदे को फूट-फूटकर रोते देखा। और रात में वही किस्सा याद करके ये रच डाला....

अभी के लिए ये रचना... बाक़ी दिल्ली पहुँचकर...



~ अश्रू व्यापार

बारिश की बूँदों के बीच,
आज कोई दिखा रोता हुआ,
फूटकर अश्रू बहाता,
सिसकियाँ लेता हुआ

दो पल पहले ही एक लम्हे के लिए
उससे नज़रें हुई थीं मेरी बाबस्ता
कह रहीं थीं जैसे
दो होकर भी अकेली हैं वो
और रोना चाहती हैं आहिस्ता-आहिस्ता
क्योंकि रोने वाले को ये कमज़ोर कहते हैं

फिर यकायक अश्रूओं के वो ज्वार
उसकी आँखों के बाँध को पार गए,
छलछला गए आँसू भरी सड़क पर
जो मेरी कृतिम ख़ुशी के लबादे को भी
बिना मुझसे पूछे तार-तार कर गए,
सोचा दौड़कर उसे गले लगा लूँ
पराए अश्रूओं को अपने कंधों पर पोंछ लूँ,
और लगे हाथ चुपके से -
अपने कुछ ज्वार उस पराए कांधे पर छोड़ दूँ,

लेकिन उस वक्त मैं कमज़ोर नहीं पड़ा...

उसी रात में एक मीठी गहरी नींद के बाद,
एक ज्वार फिर उठा कुछ फ़र्क के साथ,
क्यों‍कि इस बार अश्रू पराए न थे
अब मैं कमज़ोर पड़ गया था...
और कल्पनाओं में ढूँढ रहा था बिस्तर पर
एक कंधा भिगोने के लिए,
किसी पराए का या किसी अपने का...

और सोचता रहा इसी तरह
काश बिना अपने-पराए के भेद के
यूँ ही अश्रू व्यापार हम कर सकते...
यूँ ही अश्रू व्यापार हम कर सकते...

~ पंकज

Wednesday, June 23, 2010

मुझसे मेरे कितने नाम...




क्या है नाम मेरा कभी सोचता हूँ
तो वो नाम याद आते हैं,
जिन्होंने कई नाम दे दिए।

सब आते हैं टटोलकर,
मेरा मुखौटा पसंद करते हैं,
फिर उसी के पीछे वाले
चेहरे की असली पहचान पूछकर,
ख़ुद ही एक नाम भी दे देते हैं।

अजीब हैं...

कभी मुखिया घोषित कर दिया,
ये जानकर कि हम आदेश देते हैं,
हर वक्त कर्म लक्ष्य प्राप्ति में
अपने कुनबे की फ़िक्र में रहते हैं,

भीड़ के रंगों में घुल जाना,
चंचलता की सीमाओं को लाँघ
अनजाने रास्तों पर बढ़ जाना,
ऐसी कुछ आदतों के तर्क पर
किसी ने झरने की संज्ञा दे दी,

इसलिए कभी बहते पानी सा भी लगता हूँ,
किसी की प्यास बुझ जाती है,
तो कुछ भीग जाते हैं,
कोई पाप धोकर हमसे
ख़ुद में ख़ुद की ख़ुशी पाते हैं,

तो कुछ नाम के प्रयोग में
सभी अक्षरों को तोड़ कर,
मेरे नज़दीकी बनना चाहते हैं
कभी पागल घोषित करके मुझे
मेरे ही कौशल से परिचित कराते हैं,

अच्छा लगता है....कभी...फिर...

सोचता हुँ कितने नाम मिले हैं!
काश! कोई एक नाम और देता,
तुम दोस्त हो, मित्र हो, हमराही हो!
कोई ऐसा भी तो कहता।

नाम और पहचान की रेस में,
यही तसल्ली करता हूँ,
नामों से फ़र्क क्या पड़ता है।

आख़िर
मैं हूँ तो वही जो मैं हूँ!

~ पंकज

Saturday, June 19, 2010

"फ़ेवर बैंक" - इंसानी रिश्तों की डोर

बहुत दिनों से कई सारी कहानियों का बोझ गम्मती के कंधों पर बढ़ रहा है। आज जा कर कुछ समय निकला है। वैसे भी जब भी ये सोच कर लिखने बैठो कि कुछ लिखना ही है, तब कुछ नहीं हो पाता। दरअसल, जब विचारों की ज़मीन पर शब्द कबड्डी खेलते हुए कलम की सीमा को लाँघते हैं, तभी कुछ न कुछ स्वाभाविक तौर पर लिखने में आता है। अभी पिछले दो महीनों से कई ऐसी बातें रहीं है जो शब्दों में पिरोकर सबसे बाँटनीं हैं। किंतु बेरोज़गारी और बिना पढ़ाई के भी मैं कभी इतना व्यस्त हो सकता हूँ ये मैंने नहीं सोचा था। मई की शुरूआत में केरल की 15 दिन की यात्रा से लौटकर वहाँ की यात्रा डायरी के सारे पन्ने सामने रखने का मन था, लेकिन यहाँ आते ही कई और चीज़ें नई-नई कहानियाँ लेकर सामने थीं। फिर आगे की पढ़ाई के लिए परीक्षाएँ देने की उलझन ने लिखने नहीं दिया। अब धीरे-धीरे सारे किस्से और अनुभव साझा करता रहूँगा, जब भी जैसे भी समय मिलेगा। फ़िलहाल, पुस्तकें पढ़ने की आदत अच्छी डल गई है।

केरल यात्रा के समय ब्राज़ीली मूल के लेखक पाउलो कोएल्हो की पुस्तक द एलकेमिस्ट पढ़ता रहा। और उसे ख़त्म करने के बाद अब द ज़ाहिर शुरू की है। हाल ही में दोस्तों के बीच हाथ मिलाकर विदा होते समय झुककर प्रणाम करने और फिर एक जुमला कहने की रीत सी बन गई है। जुमला है मान-सम्मान और व्यवहार ज़िंदगी का लक्ष्य। चंद रोज़ पहले दिल्ली जाते हुए द ज़ाहिर में एक ऐसा ही पृष्ठ पढ़ने को मिला जिससे दोस्तों के बीच मज़ाक में इस्तेमाल किए जाने वाले इस जुमले की समझ और गहरी हो गई। इसी पुस्तक का एक अंश यहाँ डाल रहा हूँ। उम्मीद है पढ़कर मज़ा आएगा। इस अंश का ‍अनुवाद करके इसलिए नहीं डाल रहा हूँ क्योंकि यह पहले ही पुर्तगाली से अंग्रेज़ी में अनुदित अंश है। इसलिए इस पर और प्रयोग करने की हिमाकत करके इसकी आत्मा से खेलना नहीं चाहता था।

इस वार्तालाप की भूमिका पैरिस के एक कैफ़े में एक लेखक और एक व्यक्ति के बीच का वार्तालाप है। (पैरिस जिसे उसके कैफ़ेज़, वहाँ बैठकर लिखते लेखकों और वहाँ के सांस्कृतिक जीवन के लिए जाना जाता है)। वहाँ के कुछ लोगों का मानना है कि आप मेरी पुस्तक के बारे में अच्छी बातें कहिए और मैं आपकी पुस्तक के बारे में अच्छी बातें कहूँगा। और ये फ़ेवर बैंक का चलन है।

‘What is this Favour Bank?’
‘You know. Everyone knows.’
‘Possibly, but I still haven’t quite grasped what you’re saying.’
‘It was an American writer who first mentioned it. It’s the most powerful bank in the world, and you’ll find it in every sphere of life.’
‘Yes, but I come from a country without a literary tradition. What favours could I do for anyone?’
‘That doesn’t matter in the least. Let me give you an example: I know that you’re an up-and-coming writer and that, one day, you’ll be very influential. I know this because, like you, I too was once ambitious, independent, honest. I no longer have the energy I once had, but I want to help you because I can’t or don’t want to grind to a halt just yet. I’m not dreaming about retirement, I’m still dreaming about the fascinating struggle that is life, power and glory.’
‘I start making deposits in your account – not cash deposits, you understand, but contacts. I introduce you to such and such a person, I arrange certain deals, as long as they’re legal. You know that you owe me something, but I never ask you for anything.’
‘And then one day …’
‘Exactly. One day, I’ll ask you for a favour and you could, of course, say “No”, but you’re conscious of being in my debt. You do what I ask, I continue to help you, and other people see that you’re a decent, loyal sort of person and so they too make deposits in your account – always in the form of contacts, because this world is made up of contacts and nothing else. They too will one day ask you for a favour, and you will respect and help the people who have helped you, and, in time, you’ll have spread you net worldwide, you’ll know everyone you need to know and your influence will keep on growing.’

‘I could refuse to do what you ask me to do.’
‘You could. The Favour Bank is a risky investment, just like any other bank. You refuse to grant me the favour I asked you, in the belief that I helped you because you deserved to be helped, because you’re the best and everyone should automatically recognise your talent. Fine, I say thank you very much and ask someone else into whose account I’ve also made various deposits; but from then on, everyone knows, without me having to say a word, that you are not to be trusted.
‘You’ll grow only half as much as you could have grown, and certainly not as much as you would have liked to. At a certain point, your life will begin to decline, you got halfway, but not all the way, you are half-happy and half-sad, neither frustrated not fulfilled. You’re neither cold not hot, you’re lukewarm, and as an evangelist in some holy book says: “Lukewarm things are not pleasing to the palate.”’

वैसे यह पोस्ट लिखते समय फ़रदीन की एक फ़िल्म का गीत याद आ गया जिसके बोल थे-
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें।
सुख, दुख सदा मिलकर सहें।।

उम्मीद है इस बातचीत से फ़ेवर बैंक की कार्यप्रणाली स्पष्ट हो गई होगी। तो बस, दूसरों के खातों में डिपॉज़िट्स करते रहिए। क्योंकि जैसा कि मेरे मित्रों के बीच चर्चित है ही ; मान, सम्मान और व्यवहार ज़िंदगी का लक्ष्य
चित्र: गूगल की तरफ़ से

Tuesday, April 13, 2010

गुड़िया...

एक गुड़िया रेशमी बालों वाली,
ऊपर नीचे करने पर,
आँखें मटकाने वाली,
वो जिसका चेहरा हमेशा खिला रहता,
जिसके साथ दिल बहला रहता,
अब कुछ खोई-खोई रहती है,
वो गुड़िया कहीं दिखाई नहीं देती है!

उसके रबर से नरम चेहरे पर जैसे,
ऊपरवाले ने भी
मुस्कान को सिलकर भेजा था,
हर किसी से यूँ हँसकर मिल जाती,
हँसी के आगे नफ़रत पिघल जाती,
वो निश्छल बच्चों के रूठे मन को
चुटकियों में प्रफ्फुलित करके
उनके संग गुड्डा-गुड्डी के खेल में,
कल्पनाओं की सैर पर निकल जाती!
अब कुछ उलझी-उलझी रहती है,
वो गुड़िया कहीं दिखाई नहीं देती है!!



बचपन वाली उस गुड़िया के,
कड़क होने पर भी
हाथ कहीं, पैर कहीं रहते,
उसकी हरकतें आकर्षित करने वाली,
बेपरवाही और बेफ़िक्री से रहने वाली,
बदलती ऋतुओं के असर से परे वो,
हरदम एक सी रहकर भी
अपने उद्देश्य को पहचान बनाकर
एक गुड़िया का अस्तित्व निभाने वाली,
अब ज़रा व्यथित-कुंठित सी रहती है,
वो गुड़िया कहीं दिखाई नहीं देती है!!!

क्योंकि गुड़िया के साथ सब बदल गया है...

उसके नरम रबर के पीछे माँस चढ़ गया है,
वक्त के साथ अनुभव का काँटा गढ़ गया है,
कई गुड्डे-गुड्डियों के साथ मिलकर,
भैया-दीदी, दोस्त-सहेली, प्रेमी को पाकर
एक परिवार बनाया था उसने, जो बिछड़ गया है,

ज़िंदगी के चुंगल में फँसी गुड़िया,
अब सब रिश्तों से डरती है,
घुट-घुट कर अब वो मरती है,
अब जान गए हैं लोग भी देखो

के आख़िर क्यों???

वो खेलती-मुस्काती, सबको अपना बनाती
अब कुछ उलझी-खोई,
व्यथित-कुंठित सी रहती है
वो गुड़िया कहीं दिखाई नहीं देती है!!!
वो गुड़िया कहीं दिखाई नहीं देती है!!!

~ पंकज

चित्र ~ हमेशा की तरह गूगल महाराज की ओर से...सधन्यवाद!

Tuesday, February 16, 2010

वैलेंटाइन पर मधुमक्खियों की पप्पियाँ - BEE My Valentine!


ट्रैंकिंग की अपनी पिछली पोस्ट में मैंने अभिनय के सांगहँस (संघर्ष) की बात की थी। लेकिन इस बार की ट्रैंकिंग असली संघर्ष में तब्दील हो गई। पिछली बार जहाँ सीधे-सपाट रास्ते होते हुए इंदौर के पास च्यवनऋषि के आश्रम तक गए थे। वहीं इस बार हमने सिमरोल के आगे जूना पानी को अपना गंतव्य बनाया था। सभी उ‍त्साहित थे क्योंकि हमें दो पहाड़ों को पार करके लगभग 7 किमी का रास्ता तय करना था। यकीन मानें, जूना पानी तक पहुँचने का रास्ता वाकई चुनौतियों भरा रहा जहाँ तक हम पतली सी पहाड़ी पगडंडिंयों पर फिसलन भरे पत्थरों से बचते-बचाते पहुँचे थे। रास्ते का ये संघर्ष तो हर ट्रैंकिंग का हिस्सा होता है। किंतु असली संघर्ष तो जूना पानी के कुण्ड तक पहुँचने के बाद ही शुरू हुआ। और वहाँ से वापस लौटने की कहानी भी जीवनभर याद रहने लायक बन गई।

वैलेंटाइन डे पर कहीं ट्रैंकिंग पर जाना कुछ लोगों को अजीब लगेगा। लेकिन उन्हें क्या फ़र्क पड़ता है जिनका कोई वैलेंटाइन ही ना हो :D । ख़ैर तो हम भी ऐसे ही करीब 40 लोगों की जमात में शामिल होकर चले गए ट्रैंकिंग के लिए। सिमरोल से आगे मेहंदी बागोदा में गाड़ियाँ रखकर हम लोग 2 किमी पैदल चलकर पहाड़ तक गए, और फिर 1 किमी खड़े उतार से होकर नीचे गए। वहाँ से लगभग 2 किमी फिर अगले पहाड़ पर चढ़ाई की और फिर 1 किमी नीचे जाकर हमें जूना पानी का कुण्ड भी दिखाई दिया। इन्हीं पहाड़ी इलाकों में हमें 4-5 चंचल हिरणियों का झुण्ड भी इठलाता हु्आ पहाड़ों पर मस्ती करता हुआ दिखाई दिया। अद्भुत दृश्य था वो भी। ख़ैर ये आंनद का परिदृश्य जल्द ही दर्दनाक अनुभव में तब्दील हो गया जब जूना पानी कुण्ड में नहाते समय हम पर मधुमक्खियों ने हमला कर दिया। मधुमक्खियाँ नहीं भमरमाल कहिए (यह मधुमक्खियों की देशी प्रजाती होती है-मोटी मोटी और बड़ी घातक)। आगे क्या हुआ होगा ये पढ़ने के पहले ही शायद आपको हँसी आ जाए फिर भी आपको ये अनुभव सुनाना मुझे बहुत ज़रूरी लग रहा है!

कच्छे-बनियान और गीले शरीर के साथ में मधु‍मक्खियों ने हम पर क्या असर छोड़ा होगा ये तो आप अंदाज ही लगाइए। किसी की दुआ ही रही होगी कि हम बच गए और 10-15 मक्खियों को ही मेरे ख़ून का स्वाद चखने का मौका मिला। क्योंकि उनसे बचने के लिए हम लगभग 1 घंटे तक कड़कते ठंडे पानी में बिना किसी हलचल के लेटे रहे। शुरू में जैसे ही मधुमक्खियों का हमला हुआ हम पानी से बाहर भागे ताकि भागमभाग में कोई डूब ना जाए। लेकिन जैसे ही मैं बाहर की ओर भागा मानो उलटा भूत माथे चढ़ गया। यकीनन मेरे भागने से ज़्यादा स्पीड उन जीवों की थी जिन्हें इस बार मधुरस से ज़्यादा स्वाद हमारे ख़ून में आ रहा था। बाहर निकलते ही मुझे अभिताभ बच्चन के पाडांस की याद आ गई और मेरे भी दोनों हाथ कभी अपने सर पर, तो कभी सीने पर, तो कभी पीठ को खुजाते रहे। अमिताभजी और मेरे डांस में बस फ़र्क इतना रहा कि वे मनोरंजन में नाचे थे और हम रूदन में नाच रहे थे। और यकीनन इस अनोखे डांस में हमारी स्पीड भी उनसे 10 गुना अधिक ही थी। इसलिए मुझे वापस पानी में लौटना पड़ा।

वैलेंटाइन डे पर सुबह अपनी माँ को प्यारी सी पप्पी देकर घर से निकलते वक़्त ये ज़रा भी ख़्याल नहीं था कि आज हमें और कितनी पप्पियाँ मिलने वाली हैं। यूँ तो मैं प्यार के ऐसे झमेलों से सदा ही दूर रहा हूँ। किंतु अगर कोई आकर ख़ुद ज़बरदस्ती कर जाए तो क्या किया जा सकता है। 14 फ़रवरी 2010 को भी कुछ ऐसा ही हुआ। हमें अकेला पाकर मधुमक्खियों ने तो ऐसे हमला किया जैसे उनमें होड़ लग गई हो कि ये जनाब हमारे हैं और वो ख़ातून हमारी हैं। वो लाल ड्रैस वाली को मेरी पप्पी मिलेगी तो किसी ने कहा... अरे! वो सफ़ेद बनियान वाला जवान मेरा है!!! मुझे भी कुछ मधुमक्खियों ने मौका पाकर घेर ही लिया। उन्हें तो जैसे मेरा सामूहिक बलात्कार करना था। मेरे पास आकर सीधे अपने प्यार का इज़हार कर दिया उन कमबख़्तमारियों ने। दो-चार तो मेरे मुँह में जाकर ब्रह्मांड घूम आईं जैसे मैं बाल कृष्ण हूँ। वे सब तो जेट स्पीड में आईं और कहा पंकज..... वी लव यू, वी लव यू, WE LOVE YOU.... पुच्च्च्च...पुच्च्च्च...पुच्च्च्च...पुच्च्च्च...पुच्च्च्च!!!!! और ऐसी पप्पियाँ दीं कि बाद में अगर मैं चाहता भी तो वैलेंटाइन डे पर (अग़र ग़लती से कोई मिल जाती तो भी) अपने प्यार का इज़हार करके उसे पप्पी नहीं दे सकता था। पप्पी तो छोड़िये झप्पी देने का भी मन नहीं होता।

ख़ैर भमरमाल का आतंक थमते ही हम वहाँ से निकलने को तैयार हो गए और जिसके हाथ में जिसका सामान आया लेकर ऊपर चढ़ने लगे। मोबाइल के सिग्नल मिलते ही सबसे पहले इंदौर के साथियों को और 108 पर एम्बूलेंस को ख़बर की गई। हमारे पूरे समूह की औसत आयू लगभग 28-30 के बीच रही होगी। चढ़ाई शुरू करते ही एक महाशय ने तो ‍इतना तक कह दिया कि मुझे मर जाने दीजिए और आप लोग आगे बढ़ जाइए। पर यूथ होस्टल के साथियों का जज़्बा यूँ ही नहीं हारने वाला था। और ऊपर से ख़बर लगते ही गाँव वाले भी ताबड़तोड हमारी मदद के लिए आ चुके थे। उन महाशय के लिए बम्बूओं के सहारे शैया बनाई गई और उन्हे ऊपर लाया गया। बाक़ी साथियों को एक-दूसरे के सहारे ऊपर तक लेकर आए। हम जैसे कुछ लोग जो मधुमक्खियों का अधिक आहार नहीं बने थे, वे दरअसल दूसरों का सहारा बनने में अधिक पस्त हो चुके थे। फिर भी ये संघर्ष जीत ही लिया सभी ने।

घायलों और घबराए हुए साथियों को अस्पताल पहुँचाने के बाद मेरी भी सांस फूल गई थी। इस पूरी दुर्घटना में जितना शारीरिक त्रास हुआ उससे कही अधिक प्रभाव मानसिक तौर पर हुआ था। मनौवैज्ञानिक तौर पर अंत में सभी पस्त हो चुके थे। लेकिन ख़ुशी इस बात की थी कि कुछ भी अनहोनी नहीं हो पाई।

दोस्तों और जानने वालों को जब ये ख़बर मिली तो उन्हें मेरे चाँद से रौशन चेहरे को देखने की लालसा जाग उठी। ख़ैर मुझे देखकर उन्हें निराशा ही हाथ लगी क्योंकि उस रात को इतना असर नहीं हुआ था। अगली सुबह तो ख़ुद का चेहरा भी पहचाना नहीं जा रहा था। हाथ-पैरों की अकड़न अलग। इसलिए ही तत्काल ये पोस्ट नहीं लिख पाया। चूँकि अब सब कुछ सामान्य हो गया है। ये अनुभव आपकी नज़र पेश कर दिया हमने। इसी बहाने वैलेंटाइन पर मिली ये अनोखी पप्पियाँ हमेशा याद रहेंगी। अब इस वाकिये पर हँसना है या सहानुभूति देना है ये आप पर है। ख़ैर मुझे तो हँसी ही आ रही है। सो आप भी बेतकल्लुफ़ हो जाइए। Just BEE Happy. :D

अरे हाँ! यदि किसी लड़की को ये अनुभव पसंद आया हो तो मैं यही कहूँगा "Will you BEE My Valentine"!!!

चित्र: हमेशा ‍की तरह गूगल से साभार!