Wednesday, June 23, 2010

मुझसे मेरे कितने नाम...




क्या है नाम मेरा कभी सोचता हूँ
तो वो नाम याद आते हैं,
जिन्होंने कई नाम दे दिए।

सब आते हैं टटोलकर,
मेरा मुखौटा पसंद करते हैं,
फिर उसी के पीछे वाले
चेहरे की असली पहचान पूछकर,
ख़ुद ही एक नाम भी दे देते हैं।

अजीब हैं...

कभी मुखिया घोषित कर दिया,
ये जानकर कि हम आदेश देते हैं,
हर वक्त कर्म लक्ष्य प्राप्ति में
अपने कुनबे की फ़िक्र में रहते हैं,

भीड़ के रंगों में घुल जाना,
चंचलता की सीमाओं को लाँघ
अनजाने रास्तों पर बढ़ जाना,
ऐसी कुछ आदतों के तर्क पर
किसी ने झरने की संज्ञा दे दी,

इसलिए कभी बहते पानी सा भी लगता हूँ,
किसी की प्यास बुझ जाती है,
तो कुछ भीग जाते हैं,
कोई पाप धोकर हमसे
ख़ुद में ख़ुद की ख़ुशी पाते हैं,

तो कुछ नाम के प्रयोग में
सभी अक्षरों को तोड़ कर,
मेरे नज़दीकी बनना चाहते हैं
कभी पागल घोषित करके मुझे
मेरे ही कौशल से परिचित कराते हैं,

अच्छा लगता है....कभी...फिर...

सोचता हुँ कितने नाम मिले हैं!
काश! कोई एक नाम और देता,
तुम दोस्त हो, मित्र हो, हमराही हो!
कोई ऐसा भी तो कहता।

नाम और पहचान की रेस में,
यही तसल्ली करता हूँ,
नामों से फ़र्क क्या पड़ता है।

आख़िर
मैं हूँ तो वही जो मैं हूँ!

~ पंकज

Saturday, June 19, 2010

"फ़ेवर बैंक" - इंसानी रिश्तों की डोर

बहुत दिनों से कई सारी कहानियों का बोझ गम्मती के कंधों पर बढ़ रहा है। आज जा कर कुछ समय निकला है। वैसे भी जब भी ये सोच कर लिखने बैठो कि कुछ लिखना ही है, तब कुछ नहीं हो पाता। दरअसल, जब विचारों की ज़मीन पर शब्द कबड्डी खेलते हुए कलम की सीमा को लाँघते हैं, तभी कुछ न कुछ स्वाभाविक तौर पर लिखने में आता है। अभी पिछले दो महीनों से कई ऐसी बातें रहीं है जो शब्दों में पिरोकर सबसे बाँटनीं हैं। किंतु बेरोज़गारी और बिना पढ़ाई के भी मैं कभी इतना व्यस्त हो सकता हूँ ये मैंने नहीं सोचा था। मई की शुरूआत में केरल की 15 दिन की यात्रा से लौटकर वहाँ की यात्रा डायरी के सारे पन्ने सामने रखने का मन था, लेकिन यहाँ आते ही कई और चीज़ें नई-नई कहानियाँ लेकर सामने थीं। फिर आगे की पढ़ाई के लिए परीक्षाएँ देने की उलझन ने लिखने नहीं दिया। अब धीरे-धीरे सारे किस्से और अनुभव साझा करता रहूँगा, जब भी जैसे भी समय मिलेगा। फ़िलहाल, पुस्तकें पढ़ने की आदत अच्छी डल गई है।

केरल यात्रा के समय ब्राज़ीली मूल के लेखक पाउलो कोएल्हो की पुस्तक द एलकेमिस्ट पढ़ता रहा। और उसे ख़त्म करने के बाद अब द ज़ाहिर शुरू की है। हाल ही में दोस्तों के बीच हाथ मिलाकर विदा होते समय झुककर प्रणाम करने और फिर एक जुमला कहने की रीत सी बन गई है। जुमला है मान-सम्मान और व्यवहार ज़िंदगी का लक्ष्य। चंद रोज़ पहले दिल्ली जाते हुए द ज़ाहिर में एक ऐसा ही पृष्ठ पढ़ने को मिला जिससे दोस्तों के बीच मज़ाक में इस्तेमाल किए जाने वाले इस जुमले की समझ और गहरी हो गई। इसी पुस्तक का एक अंश यहाँ डाल रहा हूँ। उम्मीद है पढ़कर मज़ा आएगा। इस अंश का ‍अनुवाद करके इसलिए नहीं डाल रहा हूँ क्योंकि यह पहले ही पुर्तगाली से अंग्रेज़ी में अनुदित अंश है। इसलिए इस पर और प्रयोग करने की हिमाकत करके इसकी आत्मा से खेलना नहीं चाहता था।

इस वार्तालाप की भूमिका पैरिस के एक कैफ़े में एक लेखक और एक व्यक्ति के बीच का वार्तालाप है। (पैरिस जिसे उसके कैफ़ेज़, वहाँ बैठकर लिखते लेखकों और वहाँ के सांस्कृतिक जीवन के लिए जाना जाता है)। वहाँ के कुछ लोगों का मानना है कि आप मेरी पुस्तक के बारे में अच्छी बातें कहिए और मैं आपकी पुस्तक के बारे में अच्छी बातें कहूँगा। और ये फ़ेवर बैंक का चलन है।

‘What is this Favour Bank?’
‘You know. Everyone knows.’
‘Possibly, but I still haven’t quite grasped what you’re saying.’
‘It was an American writer who first mentioned it. It’s the most powerful bank in the world, and you’ll find it in every sphere of life.’
‘Yes, but I come from a country without a literary tradition. What favours could I do for anyone?’
‘That doesn’t matter in the least. Let me give you an example: I know that you’re an up-and-coming writer and that, one day, you’ll be very influential. I know this because, like you, I too was once ambitious, independent, honest. I no longer have the energy I once had, but I want to help you because I can’t or don’t want to grind to a halt just yet. I’m not dreaming about retirement, I’m still dreaming about the fascinating struggle that is life, power and glory.’
‘I start making deposits in your account – not cash deposits, you understand, but contacts. I introduce you to such and such a person, I arrange certain deals, as long as they’re legal. You know that you owe me something, but I never ask you for anything.’
‘And then one day …’
‘Exactly. One day, I’ll ask you for a favour and you could, of course, say “No”, but you’re conscious of being in my debt. You do what I ask, I continue to help you, and other people see that you’re a decent, loyal sort of person and so they too make deposits in your account – always in the form of contacts, because this world is made up of contacts and nothing else. They too will one day ask you for a favour, and you will respect and help the people who have helped you, and, in time, you’ll have spread you net worldwide, you’ll know everyone you need to know and your influence will keep on growing.’

‘I could refuse to do what you ask me to do.’
‘You could. The Favour Bank is a risky investment, just like any other bank. You refuse to grant me the favour I asked you, in the belief that I helped you because you deserved to be helped, because you’re the best and everyone should automatically recognise your talent. Fine, I say thank you very much and ask someone else into whose account I’ve also made various deposits; but from then on, everyone knows, without me having to say a word, that you are not to be trusted.
‘You’ll grow only half as much as you could have grown, and certainly not as much as you would have liked to. At a certain point, your life will begin to decline, you got halfway, but not all the way, you are half-happy and half-sad, neither frustrated not fulfilled. You’re neither cold not hot, you’re lukewarm, and as an evangelist in some holy book says: “Lukewarm things are not pleasing to the palate.”’

वैसे यह पोस्ट लिखते समय फ़रदीन की एक फ़िल्म का गीत याद आ गया जिसके बोल थे-
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें।
सुख, दुख सदा मिलकर सहें।।

उम्मीद है इस बातचीत से फ़ेवर बैंक की कार्यप्रणाली स्पष्ट हो गई होगी। तो बस, दूसरों के खातों में डिपॉज़िट्स करते रहिए। क्योंकि जैसा कि मेरे मित्रों के बीच चर्चित है ही ; मान, सम्मान और व्यवहार ज़िंदगी का लक्ष्य
चित्र: गूगल की तरफ़ से