Thursday, October 6, 2011

अहम् रावण अस्मि!


विजयादशमी पर्व की ढेरों शुभकामनाएँ आप सभी को इस रचना के साथ!

आती सर्दियों से रिसती धूप में,
ईमान जैसी सूखी घास,
अपनेपन के चमकीले दिखावटी कपड़े,
कई छुपे चेहरों के साथ,
कलयुगी रावण के रूप में,
हर वर्ष नए अस्तित्व में गढ़ा,
फिर से हुआ एक ढाँचा खड़ा,

सोचता हूँ काश,
मैं भी रावण ही होता,

सब पर राज करने की,
मैं महत्वकांक्षा रखता,
चाहता माँस, मदिरा, माया,
के भोग की विलासिता,
पर नार के लालस में,
कामनाओं के वश में,
लाँघ भी देता समुद्र की सीमा,
दमन करता, जीतता दुर्बल को,
अनुकूल करता हर प्रतिकूल को,
भाई कहकर लूटता धनकुबेर को,
मित्र अपना कहता बस दिलेर को,
और फिर
नाश करता सर्वसामान्य के मूल को,

इसमें क्यों लजाऊँ मैं,
बोलो ना?
क्यों
इस कलयुग की भीड़ में,
दुर्भावना, बेमानी से झुकी
खोखली होती रीढ़ में,
दमन की राजनीति में,
अन्याय की आपबीति में,
फ़र्स्ट आने की रेस में,
या घर-गहस्थी के क्लेश में,

तुम सब भी तो यही चाहते हो,
महत्वकांक्षा, माया, भोग विलासिता,
शक्ति, सत्ता, सम्मान, चाटुकारिता!
इसलिए सोचता हूँ कि आज,
मैं भी रावण बन जाउँ,
सबसे ऊँचा खड़ा होकर,
मेरी मृत्यु का उल्लास मनाने आए,
लोगों को निहारूँ,
और जब सत्य की चिंगारी,
भस्म कर दे मुझे पूर्णरूप में,
तब अट्टाहस भरूँ,
अपने राख होने पर,
क्योंकि तुम तालियाँ पीटते,
शंखनाद और ईश्वरी नारों के बीच,
अपने-अपने रावण को लेकर,
घर लौट जाओगे!

~ पंकज

Tuesday, September 13, 2011

वो तो बस इतना ही चाहती है कि...


कितने ही संवाद होते हैं, जो कभी बिना कहे ही व्यक्त हो जाते हैं। दूसरी ओर कितने ही अरमान होते हैं, हसरतें होती हैं जिन्हें अभिव्यक्ति की जुँबा तक आने का समय ही नहीं मिल पाता। या यह भी माना जा सकता है कि अभिव्यक्ति के छोर तक आते-आते वो हसरतें इतनी बुलंद हो जाती है कभी-कभी कि फिर वो शब्दों की मोहताज नहीं रहती।

मैं यह तो नहीं कह सकता कि यह हर लड़की कि कहानी होगी। लेकिन फिर भी शायद आप इसमें अपनी हसरतों का प्रतिबिंब महसूस कर पाएँ!
क्योंकि जब उस लड़की की सोच की बात आई तो यही कुछ पंक्तियाँ निकल कर उभर आईं। अब लड़कियाँ ही बताएँ कि इंसाफ़ है या बस कोरे जज़्बात हैं!


बस इतना ही चाहती हूँ -



हाँ!
मैं प्रेम करती हूँ,
स्वीकाती हूँ तुम्हारी मौजूदगी,
अपने अंदर के वीराँ में,
बस जताती नहीं कभी!


चाहती हूँ मैं इतना कि,


दर्श हो जब तुम्हारा,
दौड़ी आऊँ, गले लग जाऊँ,
जैसे अल्हड़ नदी आवेग में,
लिपटती है ‍चट्टान से,




अनजाने ही,
तुम्हारे हाथों के बीच,
अपनी उंगली सरका दूँ,
उसे तुम्हारी गर्माहट का
जैसे लिहाफ़ ओढ़ा दूँ,


तुम्हारे नज़दीक आते ही,
टिक जाऊँ तुम्हारे कांधे पर,
ये मानकर कि मेरे अस्तित्व की,
तुम ही नींव रहो उम्रभर,


कुछ आगे बढ़कर मैं ही,
चूम लूँ तुम्हारा माथा ऐसे,
कि तुम हो सावन की बूँद,
और मैं बंजर ज़मीन जैसे,


अपनी गोद के तकिये पर,
तुम्हारे बालों में हिरन की तरह,
विचरने दूँ अपनी उंगलियों को,
और तुम्हारे चेहरे पर,
बिछा दूँ अपनी जुल्फ़ों की छत,
कि कोई और फिर कभी,
भीगो न सके तुम्हारी आँखों को,


यह सब मैं,
लेकिन कभी तुम्हें जता कर,
तुम्हें यूँ जीत नहीं सकी!
क्योंकि मैं तुम्हें कभी,
हराना नहीं चाहती,


बस-
चाहती हूँ मैं इतना कि,
हार जाऊँ हमेशा की तरह,
तुम्हारी एक नज़र में ही,
और निढाल होकर बिखर जाऊँ,
कतरा-कतरा तुम्हारे रोम-रोम में!
बस इतना ही चाहती हूँ मैं।
बस इतना ही...


~ पंकज

चित्र: गूगल छवियाँ

Tuesday, August 2, 2011

शब्दों की आवाज़...


चलते-चलते शब्दों का कारवाँ कहाँ से कहाँ ले जाकर छोड़ देता है। एक ख़्याल से शुरू हुई रचना पता नहीं विचारों की दुनिया के किस छोर पर आकर ख़त्म हो कोई नहीं जानता। दिल्ली से बाहर निकलने की बैचेनी इस कदर हुई है कि मेट्रो में एक मित्र से बात करते-करते दिल्ली लगातार बहुत समय तक रहने की बात "घुटन" शब्द तक पहुँच गई। बीते हफ़्ते दीदी ने मुझसे मेरे पास मेरी बाइन ना होने पर आश्यर्च जाताया और सीधे पुछ डाला कि बिना बाइक के ज़िंदा कैसे है तू! जवाब में बस मुस्कुरा दिया। कल दिल्ली से एक हफ़्‍ते के लिए बाहर जा रहे हैं कुछ काम के लिए, पर जाने से पहले कुछ न कुछ लिखना चाहता था। कल रात बैठकर विचारों के घोड़े दौड़ाए तो इधर-उधर दौड़ने के बाद इन शब्दों की नकेल में बंध गए। हर शेर का अपने कई संदर्भ हैं ‍नीचे की कविता में। आप अपने हिसाब से अपनी ज़िंदगी से जुड़े अर्थ निकालने को स्वतंत्र हैं। बताइएगा ज़रूर कैसी लगी!

आवाज़... 

बेरहम घुटन को मेरी अब साँस दो,
दबे लफ़्ज़ों को मेरे तुम आवाज़ दो,
इश्क़ के नाम से न बांधों पंछी को,
जिसे उड़ना पसंद है उसे परवाज़ दो,

तुम्हारी शिकायतों पर हो मेरी ख़ामोशी,
मुझे तुम सज़ा देकर ख़ुद को इंसाफ़ दो,

नया शहर नए रिश्ते एहसास तो पुराने हैं,
भीड़ में अकेला क्यूँ हूँ कोई तो जवाब दो,

हसरतों की ज़मीन मेरी हुई अब बंजर,
रहने को मुझे हौंसलों भरा आकाश दो,

ख़ौफ़ज़दा कर रहा ये आने वाला कल,
मुस्कुराती यादों का वो मेरा इतिहास दो,

(मन की बैचेनी, टीस और शिकायतों के साथ मुल्क की नज़र कुछ शेर )

धमाके ये क्या ख़ाक बाँटेंगे मेरे घर को,
दो रहीम को शबद, राम को नमाज़ दो,

सबको बुलाकर यूँ लगाओ न बस मेले,
मंद पड़ी इस क्रांति को अब आग़ाज़ दो,

दहशत नहीं मुस्कान हक़ है बचपन का,
गुलों के हाथ गोली नहीं एक किताब दो,

~ पंकज

Monday, June 27, 2011

दो कोरे क़ाग़ज़ का एक तोहफ़ा...



इस बार की कविता मैंने अपनी भावनाओं से नहीं बल्कि किसी और की भावनाओं को लेकर लिखी है। यह सोचना बहुत आसान होता है कभी-कभी कि सामने वाला क्या सोच सकता है, लेकिन अगर आप उसी के जैसे बनकर सोचने लगें और वह भी शब्दों में बांधने के लिए तो बात कुछ और हो जाती है।
स्कूल के समय में भी एक दोस्त ने मुझे एक लड़की की भावनाओं पर कुछ लिखने के लिए कहा था। उस समय भी "काश तुम समझ पाते" लिखी ज़रूर थी पर इतनी गहराई से सोचा नहीं था। इस ‍कविता को लिखते समय शब्दों का अपना अलग ही बोझ था।
यह कविता मैंने लिखी ज़रूर है लेकिन किसी और की सोच के साथ। डर केवल इतना है कि पता नहीं उन भावनाओं के साथ मेरे शब्द और सोच न्याय कर पाए हैं या नहीं।
अगर यह न्याय है भी तो फिर डर इस बात का है कि कहीं यह कविता शब्दों के लिए किसी और पर आश्रित होने का सबब न बन जाए। उम्मीद है आपको ....... लगेगी। अच्छी या बुरी के लिए Feel in the Blanks and then Fill in the Blanks :)



तोहफ़ा तुम्हारा...

क्या तोहफ़ा दूँ तुम्हें,
जब ख़ुद को दे चुकी हूँ,
पर तुम्हारी क़ीमत मैंने,
ख़ुद से ज़्यादा आँकी है,
मैं जानती हूँ तुम्हारी हर पसंद,
फिर इतना मुश्किल क्यों है,
तुम्हारे लिए एक तोहफ़ा भर चुनना,

मैंने -
तुम्हें शब्दों से खेलते देखा है,
पर तुम्हारे शब्दकोश के लिए
कुछ शब्दों की गठरी बनाकर,
कैसे दे देती तुम्हें,
जब मैं ही निशब्द हूँ तुम्हारे आगे,

मैंने-
सोचा कि माथा चूमकर तुम्हें,
कहूँ "आई एम सॉरी",
तुम्हारे लिए कुछ न कर सकी मैं,
पर पता है मुझे,
तुम बेबाक हँसी के साथ कहते,
यही काफ़ी है कि,
मैंने तुमसे प्यार किया है,

मैंने-
अपने ईश्वर से आशीष भी माँगा,
कि पहुँचा दूँगी तुम तक,
यूँ कि तुम कहाँ उसके दर जाते हो,
तुम्हारे पास तो ‍लेकिन,
माँ का प्यार,
दोस्तों की नसीहतें,
अपनों की शुभकामनाएँ,
बड़ों का आशीष,
सब पहँच चुका होगा अब तक,

मैंने-
समय की कलम थामकर,
यादों का ढक्कन खोला,
लिखने बैठी चंद लफ़्ज,
पर मैं ही पगली थी,
क्योंकि उसमें भरी हुई थी,
मेरे आँसूओं की बेरंग स्याही,
जो क़ाग़ज़ काला न कर सकी,
बस भिगोती चली गई,
क़ाग़ज़ को और मुझे,

इसलिए हारकर,
तुम्हें दो कोरे काग़ज़ दे रही हूँ,

अपने हाथों का स्पर्श देकर,
एक क़ाग़ज़ मुझे लौटा देना,
और बचा एक कोरा क़ाग़ज़,
रख लेना तुम,
क्योंकि,
फिर से हँसना, रोना, बोलना,
उड़ना और स्वछंद जीना,
तुम सीखा चुके हो मुझे,
इसलिए मैं तोहफ़ें में तुम्हें,
बस एक कोरा क़ाग़ज़ नहीं,
अपनी बची-कुची ख़ामोशी दे रही हूँ,
जो तोड़ चुके हो तुम!

~ पंकज



Monday, May 9, 2011

माँ....तू बोलती नहीं


पश्चिमी सभ्यता के दिए त्यौहारों की ही तरह व्यावसायिकता के लिए मनाए जाने वाले अनगिनत दिनों की भीड़ में मातृ दिवस भी आ गया है। वैसे तो इस मातृ दिवस पर अपनी माँ को विशकरने की परंपरा मैं पूरी कर चुका था। पर फिर भी कुछ तो कमी थी ही।
रविवार की अलसाई शाम में घर पर बात हुई। दोस्तों के साथ फ़ोन पर कई लम्हों की चीर-फाड़ भी कर डाली।  और कई दोस्तों के द्वारा अपनी माँ के नाम लिखे कई पैग़ाम और उनकी कवि‍ताओं और रचनाओं पर भी नज़र पड़ गई। ऐसे में ही एक दोस्त विपुल की एक रचना पढ़ने का मौक़ा मिला। बहुत ख़ूबसूरत लिखा था उन्होंने जो मुझे अपनी कहानी सा लगा। या कहूँ हर बेटे को अपनी माँ के लिए लिखे एक ख़त सा लगा। इस ‍कविता ने एक घाव तो कर ही दिया था। रात में अरसे बाद एक बार फिर कई मुद्दों पर बहुत ही प्यारी सी दोस्त यामिनी से बात होने से मानो उस घाव पर नमक डल गया हो।

जो टीस और दर्द उस घाव से बहा उसी को शब्दों के रूप में इस रचना में बांध दिया।

"माँ तू बोलती नहीं"

माँ...
तू कुछ कहती क्यूँ नहीं कभी,

जबकि मैं देखता हूँ तेरी आँखों में,
कितनी ही उम्मीदें मुझे लेकर,

पहले पढ़ नहीं पाता था तुझे,
अल्हड़ था, ख़ुरापाती था,
छेड़ता था मस्ती में,
और कितना सताता था तुझे,
फिर भी कुछ कहा नहीं तूने,

देर रात में आकर घंटी बजाता,
कि डाँटेगी दरवाज़ा खोलकर मुझे,
पर अलसाई आँखें लेकर तू,
बस अंदर बुला लेती थी घर में मुझे,

ज़ोर से चिल्लाता था तुझ पर,
तू जब अलसुबह उठाती थी,
फिर भी हँसते हुए तू,
मेरे लिए खाना बनाती थी,
डाँटती भी इसलिए थी
कि बस एक रोटी खाकर निकलूँ घर से,
और मैं बेशर्म सा,
तेरे बेलन की मार से बचता-बचाता
फिर भी गुदगुदाता था तुझे,

कभी टोका नहीं तूने मुझे,
देर रात तक जब फ़ोन पर बातियाता था,
अपनी कितनी सहेलियों के नाम बताता था,
पर तेरे विश्वास ने साँस दी मुझे,
क्योंकि मेरा पहला प्रेम हमेशा तू रही है,
तेरी आँखों ने कहा है मुझसे,
हमेशा-
हाँ बेटा तू सही है,
बस इसलिए ही मैं लड़ सका हूँ सबसे।

लिपटकर सोता था बचपन में तुझसे,
फिर अपनी ही
नींदों, बिस्तर और बातों में मसरूफ़ मैं,
बड़ा हो गया!
तब भी चुप ही रही तू।

रोता था अपनी चीज़ों के ग़ुम होने पर,
और तू माथे पर हाथ फेरकर,
गांभीर्य के साथ,
नसीहत की जगह तसल्ली देती थी।
और अब ज़िदगी की दौड़ भाग और भीड़ में,
जब मैं... खोता जा रहा हूँ,
तब भी कुछ कहती नहीं तू।

लंबे सफ़र में रोटी बांधकर देने पर,
ऐन मौके पर घर से निकलते हुए,
तेरी पूजा के फूल मँगवाने पर,
मेरी सलामती के तेरे लंब-लंबे उपवास में,
गणेश को मन भर चढ़ाती तेरी द्रोव रूपी घास में,
काम के बो़झ में बेतरतीब तेरे सुनहरे बालों पर,
और क्रिकेट, मोबाइल, इंटरनेट, अंग्रेज़ी से जुड़े,
बच्चों की तरह तेरे नादान सवालों पर,
मैं कितना नाराज़ हुआ हूँ तुझ पर,
माँ - फिर भी,
तूने कुछ कहा नहीं कभी,

मैं जानता हूँ कि इस एक सवाल को पढ़ती,
अपने चश्मे से झाँकती तेरी आँखें,
नम हो सकती हैं,
फिर भी कुछ नहीं कहेगी तू,

पर तेरी इस ख़ामोशी का राज़,
अब मैं समझ पाया हूँ,
कि क्यों कुछ कहा नहीं तुने कभी,
सिर्फ इसलिए ही,
क्योंकि तू "माँ" है!

~ पंकज


चित्र: गूगल और मेरा संग्रह

Thursday, May 5, 2011

आधी-अधूरी एक कविता के पूरे होने से लेकर एक नई कविता की रचना तक की गम्मत


पिछले हफ्ते से गम्मती हर रोज़ रात में एक उम्मीद लेकर बैठ रहा था कि फिर कुछ शुरू किया जाए। फिर कुछ शब्दों को काग़ज़ पर कत्ल किया जाए। कुछ नए विचारों को जन्म दिया जाए। और सहलाया जाए उन भावानाओं को दिल की सतह पर आती जाती रही। पर हमेशा की तरह बारिश बंजर ज़मीन पर नहीं बरसती है। ठीक उसी तरह बस सोचने से ही कुछ लिखना भी मुनासिब नहीं जैसा कि मैं हमेशा ही कहता रहता हूँ।

मेरी डायरी के पन्नों में या फिर टेकसैवी होने की हैसियत से यह कहूँ कि लैपटॉप की कुछ फ़ाइलों में कुछ आधी-अधूरी सी पंक्तियाँ पड़ी हुई हैं। परसो रात उन्हीं में से कुछ पंक्तियों को पूरा किया जो यहाँ पर आजा कभी तोशीर्षक के साथ है। फिर जब रंग चढ़ गया और फ्लेवर आ गया (आज शाम दिल्ली की गर्मी में चॉकलेट आइसक्रीम खाई थी, शायद इसलिए फ्लेवर शब्द का इस्तेमाल हो गया) तो फिर कल रात मैसेज टाइप करते रहने के अंजाम में कुछ-कुछ फिर लिख दिया। अब यह कुछ-कुछ भी तो पढ़वाना ही पड़ेगा ना आप सभी को। तो यह भी हाज़िर है, शीर्षक नींद नसीबीके साथ।
हमेशा की तरह आपके शब्दबाणों की चाह रहेगी।


"आजा कभी तो...."

के आजा इक रोज़, तो तुझे पहलू में रख लूँ अपने,
अरमान कुछ मैं देख लूँ, और कुछ पूरे कर दूँ सपने।

यूँ तो तेरे आने की राह कभी देखी नहीं है मैंने,
तू क्या जाने तेरी आहट में गुज़रे है पल कितने।

कि जायज़ है तेरी नाराज़ी यह मैं भी मानता हूँ,
तेरी हंसी के वास्ते, मुझसे गुनहगार लगे है बिकने।

कैसे मांग लूँ इश्क में तुझे अपनी मुराद समझकर,
जब ख़ुदा काली स्याही से लगे मेरा मुकद्दर लिखने।

तेरी यादों को समेट के दामन में छुपा लिया है यूँकि,
बैठा है आजकल वक्त मेरी ख़शियों का हिसाब करने।

~ पंकज 

"नींद नसीबी"

मुझे चैन की नींद सोना है,
सिरहाने बिना किसी तकलीफ़ या उलझन के,
आँखों में बिना किसी बेतरतीब से स्वपन के,
बिना, सीने में जलती तपन के,
और आँखे नम करने वाले ग़म के,

मुझे सोना है एक गहरी नींद,
जहाँ बंद आँखों के पीछे,
कोई स्याह परछाई ना हो,
किसी दिल की रूसवाई न हो,
नम आँखों की परतों पर जमी,
चिपचिपे आँसूओं की काई ना हो,
और तिस पर भी,
ख़ुद की ख़ुद से की बेवफ़ाई ना हो,

मुझे चाहिए एक ऐसी ही गहरी नींद,
पर इन आँखों में छुपा दर्द,
यूँही सोने नहीं देता,
मुस्कुराकर जीते रहने के वादों का,
वो भारी सा एक पुलिंदा,
बेफ़िक्र हो रोने भी नहीं देता,
मुझे किसी एवज़ में तुम उधार दे दो,
अपनी सादगी-प्यार भरी आँखें,
के शायद इन्हीं की सच्चाई से,
मुझे नींद नसीब हो जाए।

~ पंकज

चित्र: साभार गूगलश्री से

Tuesday, March 15, 2011

पाठ पुस्तक के... सीख जीवन की...


गम्मती के साथ हर सफ़र में कहानी होती है... और कभी कुछ नहीं होता है तो कहानियाँ पढ़ने बैठ जाता हूँ। अभी हाल ही में कुछ उलझे मामलों का सामना करने और ख़ुद की उलझनों को लेकर इंदौर जाने का मौका बन पड़ा। सब कुछ ठीक रहा, ठीक वैसा जैसा किसी शक्ति ने सोचा था शायद वैसा हो गया। शुरू के चार दिन उसी शक्ति के फ़रमान को मुस्कुरा कर मानने में निकल गए। फिर दिल्ली वापस लौटने की ताक़त नहीं बची थी। तो दो दिन घर पर रूक गया। दिल्ली लौटने के लिए रविवार का दिन मुकर्रर हो गया था। सो, तय समय पर ट्रेन पकड़कर अपनी सीट पर जम बैठा।

पिछले दो-तीन महीनों में रिश्तों के मकड़जाल के बीच उलझते और घुटते और परेशान होते दोस्तों को महसूस किया था। और ख़ुद भी इसी उलझन का हिस्सा भी बन गया। अब तो कई किस्से अपने मुक़ाम तक पहुँच भी गए। हमेशा रिश्तों को हम कच्ची डोर मानकर बनाते हैं। लेकिन जब उस कच्ची डोर में कहीं कोई बल आता है और वो टूट जाती है तो हम उसके बचे-खुचे रेशों तक को देखने तक से कतराने लगते हैं। हम जब भी अपने घर में एक सुंदर शोपीस सजाते हैं तो उसे देखकर ख़ुश होते हैं, लोगों को भी दिखाते हैं, तारीफ़ भी पाते हैं। लेकिन जब उस पर थोड़ी सी खरोच या टूट-फूट होती है तो उसे हटा देते हैं। लेकिन कभी-कभी हम उसकी जगह पर जमी धूल को हटाने की कोशिश नहीं करते हैं जो बाद में उसी जगह को दाग़दार कर देती है जहाँ कुछ दिन पहले एक नुमाइशी पसंदीदा चीज़ हुआ करती थी। रिश्तों का भी खेल कुछ ऐसा ही है। कुछ कारणों से ग़र टूट भी जाते हैं तो हम उसकी धूल तक को हाथ नहीं लगाते हैं, क्योंकि हम उसे पूरी तरह ख़त्म कर देना चाहते हैं। यहाँ तक कि उसकी अच्छी यादों को भी...
 ख़ैर, सफ़र के दौरान रात में पुस्तक पढ़ने का मन किया तो कॉलेज में विजेता बनने पर उपहार स्वरूप मिली पुस्तक को खोल लिया। सामने जो पृष्ठ आया उसे पढ़ना शुरू किया। इत्तेफ़ाक मेरे साथ बहुत होते हैं- इस आलेख को पढ़ेंगे तो आप भी समझ जाएँगे कि जो कुछ भी इस दौरान हुआ है वो सब इस आलेख में झलकता है जिसे पढ़कर मुस्कुराते हुए मैं नींद के पहलू में चला गया। उसी दौरान एक मित्र का फ़ोन आया और उसने सीधे यह पूछा कि "इतनी जल्दी सो गए, क्या इस बार कुछ पढ़ने के लिए नहीं ले गए हो?" तब मैंने कहा था कि दिल्ली पहुँचते ही सबको पढ़वाउँगा, क्योंकि यह सबसे जुड़ेगा। वही आलेख आप सभी लोगों के लिए यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ...आलेख से मैं सहमत हूँ और इसके संबंध में मेरा अनुभव तो ऊपर पढ़ ही लिया है... आप अपना अनुभव नीचे ज़रूर बताइएगा।


Happily Even After

Use no relationship to hold you to the past,
But with each one each day be born again.
- A Course in the Miracles

On Father's day, My friend Danielle took her two former husbands out to dinner. “I wanted to honour the two most important men in my life,”she told me. “They are the fathers of my children, and we are all related.” I respected and honored Danielle for keeping her former mates in her heart and acknowledging the good they had brought into her life.
Most of us are taught that when a relationship is over, both parties go their way upset; one is the villain and the other a victim. But what if suffering is optional? What if we can create our partings in any way we choose? What if we don’t have to separate in anger or guilt, but go on to enjoy a friendship that lasts a lifetime and beyond?
We can let go of our old models of isolation and separation and replace them with kindness, caring, intimacy and support. Because we are spiritual beings, it is not what our bodies do that determines the quality of our lives, but the state of our spirit. Although our bodies may go in different directions, we can remain whole and joined in the heart. The end of a marriage or a relationship does not mean end of love. True love spans far beyond the boundaries we have laid over it, and it does not die; it simply goes on gathering force until everyone and everything we look upon is blessed by our appreciation of each other as gifts from God.

I pray to honor the people in my life no matter what the voice of fear tells me. I will give love no matter what.

My relationships reflect the love of God.
 चित्र: गूगल-गूगल

Monday, February 28, 2011

"मैं..."


लिखने के विचार कुछ और थे लिख कुछ और ही डाला। दो-तीन हफ़्तों पहले बमुश्किल 36 घंटों के लिए अपने गृहनगर का रूख़ किया था। तब उस मिट्टी की महक, अपने मोहल्ले के शोर-शराबे और अपनी गाड़ी पर चलते हुए लगने वाली मालवा की आबोहवा ने दिल्ली के बारे में अपने विचार लिखने का बीज मन में बो दिया था। पर दिल्ली आकर व्यस्तता के चलते उस बीज में शब्दों का खाद पानी डालने का मौका ही नहीं मिला।

आज लिखने बैठा भी तो कुछ पुरानी अधूरी पंक्तियों को अस्तित्व प्रदान कर दिया। कभी लगता था कि कुछ सवालों के जवाब देने की ज़रूरत नहीं होती, क्योंकि उनका उत्तर समझा जा सकता है। लेकिन कभी-कभी जवाब तो देना होता है लेकिन बहुत से सवालों के जवाब देना आसान नहीं होता। पर शब्दों से खेलते हुए हर चीज़ आसान सी लगने लगती है। चाहे दाँत फ़ाड़कर मुस्कुराना हो या फिर जिंदगी जीने और ख़ुशियाँ बाँटने की बातें करना। आज शायद दो कविताएँ लिख दी हैं - एक तो यहाँ प्रस्तुत है। और दूसरी जो एक मित्र को मैसेज पर बातों बातों में लिखकर भेज दी। सोचता हूँ कि बातों-बातों में कही गई पंक्तियों और कविताओं का भी भण्डार है मेरे पास जो मैंने लिखकर सुरक्षित भी रखा है। लेकिन फिलहाल के लिए इस रचना को समय दीजिए...


"मैं..."

दर्द भी देता हूँ, अपनों को दवा भी देता हूँ,
मेरे दुश्मनों को देखो मैं दुआ भी देता हूँ,

शोलों से खेलने का शौक रहा नहीं मुझे,
पर सुलगती चिंगारियों को हवा भी देता हूँ।

ग़म-ए-इश्क कोई और दे ऐसा ज़रूरी नहीं,
मैं ख़ुद को ख़ुद से प्यार की सज़ा भी देता हूँ।

दिल तोड़ना तुम्हारे वास्ते ख़ुदा का कुफ़्र सही,
इसी ख़ता की अपने ख़ुदा से मैं रज़ा भी लेता हूँ।

बेशक तुम्हारी तमाम उम्मीदों से वाक़िफ़ हूँ मैं,
क्यों समझती नहीं जब आँखों से बता भी देता हूँ।

तकल्लुफ़ नहीं कि इस चेहरे पर नक़ाब हैं कई,
हर चेहरे को अपने मैं जीने की वजह भी देता हूँ।

ये कैसी उलझन तेरी जिसकी कोई वजह ही नहीं,
कभी आकर मिल तुझे कुछ यादों का पता भी देता हूँ।

अपनों की तमन्नाओं को जीना ही ज़िंदगी है मेरी,
इसलिए ही ख़ुद के अरमानों को अब दग़ा भी देता हूँ।
दर्द भी देता हूँ, और 'ख़ुद' को दवा भी देता हूँ...

~ पंकज


चित्र: साभार गूगल जी के ज़रिए।

Saturday, January 8, 2011

काग़ज़ का एक टुकड़ा...

नए साल का पहला दिन और दिल्ली की सर्दी मे धूप सेंकते हुए लोग! ऐसे ही शुरू हुआ है यह नया वर्ष।
दिल्ली में रहकर कभी नए साल का स्वागत करने का मौका आएगा यह सोचा नहीं था। हर नए साल की पूर्वसंध्या पर दोस्तों के साथ गर्मागर्म केसरिया दूध पीकर, इंदौर की सड़कों पर घूमने और राजवाड़ा के नज़ारे और माहौल देखने से फ़ुरसत ही किसे थी।
ख़ैर नए साल की शुरूआत में ही पहले सेमेस्टर की परीक्षाओं की तैयारी करने के सुविचार आने लगे थे। इसी सिलसिले में 1 जनवरी को ही दोस्तों के साथ घर पर बैठे थे। पढ़ाई के पन्नों के बीच अचानक एक कोरा काग़ज़ हाथ में आ गया।
लिखने के विचार ऐसे ही टूटते तारों की तरह अचानक से अंधेरे में रौशनी करते हुए आ जाते हैं। सो, अपनी याददाश्त पर पूरा भरोसा करते हुए, चिल्लाते हुए उसी वक़्त लैपटॉप पर दो पं‍क्तियाँ लिख कर रख ली थीं। ;)

सात दिनों के बाद अब वही विचार पूरी तरह सँवारने का प्रयास किया है।


काग़ज़ का टुकड़ा...

यूँ ही उड़ते हुए हाथ लगा,
एक काग़ज़ का टुकड़ा बिलकुल कोरा,
रेगिस्तान सा वीरान,
सोचा पलट कर देखूँ,
पर दूसरी ओर भी सुनसान,


सोचा लिख दूँ अपनी कोई कहानी इस पर,

या एक नज़्म ही उकेर दूँ,
अपनी उर्दू के लिफ़ाफ़े से निकालकर,
किसी अजनबी के नाम प्रेम पत्र लिखूँ?
या फिर चिट्ठी लिख दूँ घर पर,
कि बहुत दिन हुए माँ तुम्हें देखा नहीं है।
या अपनी मासूम बेटी के हाथ थमा दूँ,
शायद वो ही इसे काला कर दे क्योंकि,
वो भी अपनी लकीरों से खेलने लगी है,
क्यों न सँभालकर रख लूँ कल तक,
और सुबह का कचरा इसी में दफ़ना दूँ,
कहो तो इसी पर दोस्तों के नाम,
अपनी सारी ख़ुशियों की वसीयत बना दूँ,

लेकिन...
बचपन में सुना था कि,
प्याज़ की स्याही से लिखकर,
काग़ज़ को आँच दिखाने पर,
सुर्ख़ लाल अक्षर उभर आते हैं।
सोचा क्यों न इस कोरे काग़ज़ पर,
लिख दूँ अंतरमन की सारी भावनाएँ,
मैं भी अपने आँसूओं से!!!
किसी ह्रदय में कभी तो आग लगेगी,
संभवत: तब मेरी भावनाएँ,
इस काग़ज़ के मानिंद कोरी न रहेंगीं!!!

~ पंकज


चित्र: गूगल