दिल्ली डायरी के पन्नों की शुरूआत...
पिछली पोस्ट में ये लिखा था कि बाक़ी कहानी दिल्ली जाकर कहूँगा...
अब दिल्ली आए लगभग एक महीना हो चुका है। और इस बीच भी एक बार इन्दौर की रोमांचकारी यात्रा कर चुका हूँ। रोमांचकारी यात्रा इसलिए क्योंकि इस बार सामान्य दर्ज़े की यात्रा हुई। एक महीने में दिल्ली की आबोहवा में ढलने की जद्दोजहद भी शुरू हो चुकी है। और यहाँ की जीवनशैली किस कदर हावी हो जाती है एक सामान्य इंसान पर इसका अनुभव भी कर चुका हूँ। क्योंकि हर शाम को 10 मिनट के लिए ही सही ''राम-राम'' कहने के बहाने पूरे इन्दौर का चक्कर लगा लेने वाला इंदौरी भी यहाँ आकर महीने भर तक मात्र 5-8 किमी. दूर रहने वाले परिवारजनों और मित्रों से नहीं मिल पाता है। मिलना तो दूर की बात, इंटरनेट की बदौलत ही बात होने लगती है।
बात बीवीबी (भारतीय विद्या भवन) की चल रही है। तो यहाँ के मीटिंग पॉइंट और यहाँ घटने वाले बेसिर-पैर की मस्ती और संवेदनशील मुद्दों पर बहस को भी प्रकाश में ले आता हूँ। कॉलेज से निकलते ही अगले कुछ पल लगभग सभी भवनाइट्स इधर का रूख कर लेते हैं। जैसे सभी स्टूडेंट्स के मिलने का ठिया बन गया हो। इन्दौर की गली-गली में बसे साँची पार्लर्स से काफ़ी मिलते-जुलते ठिये हैं यहाँ पर भी। ख़ैर बात आज की करता हूँ। आज भी हमेशा की तरह ही मीटिंग पॉइंट पर हमेशा की तरह ही मस्ती चल रही थी और अचानक दो दोस्तों के बीच में इंडिया बेहतर है या फिर विदेश का कोई शहर, इस मुद्दे पर विचारों का आदान-प्रदान शुरू हो गया। उन पाँच लोगों के बीच खड़ा में बस सुनता रहा, समझने की कोशिश करता रहा कि किसका पक्ष यर्थाथ के कितना नज़दीक है और कौन भावनात्मक तौर पर अपने विषय या पक्ष से जुड़ा है। यहाँ ये कहने की ज़रूरत नहीं कि विदेश की तरफ़दारी यर्थाथ के आधार पर हो रही थी और भारत का पक्ष हमेशा भावनात्मक पहलू में लिपटा होता है। चूँकि ये कोई बहस नहीं थी, इसलिए बात अपनी-अपनी समझ पर ख़त्म हो गई। अब बीवीबी की बात निकली तो अचानक फिर ये बात ज़हन में आ गई।
ऐसा क्यूँ होता है कि किसी भी स्थान या देश की तस्वीर को साफ़ तौर पर देखने के लिए किसी अन्य देश से तुलना करना ही ज़रूरी हो जाता है। क्या ऐसा किए बिना हम अपनी अच्छाई या बुराई को नहीं आँक सकते। यक़ीनन विदेशों में हर काम करने का एक निश्चित तरीका माना जाता है। जो नियम और क़ानून की सीमाओं में होता है। चाहे वो धर्म की बात हो, परिवार की बात हो, सार्वजनिक स्थानों पर लोगों का रवैया हो, या फिर सड़को पर दौड़ती गाड़ियों की गति ही क्यों न हो। हर चीज़ निर्धारित है। या विदेशी पक्षधरों की ज़ुबान में कहें तो ''मैंटेंड और डिसिप्लिन्ड है''। और मैं स्वयं भी ये मानता हूँ कि ये सही भी है। लेकिन इसे आधार बना कर आख़िर हम क्यों भारत को किसी स्केल पर नंबर दिए जाते हैं। हर भारतीय ये मानने से नहीं कतरा सकता कि भारत में कई कमियाँ हैं, कई सामाजिक और सियासती बुराइयाँ भी हैं। लेकिन मैं घर पहुँचते हुए भी इसी नतीजे पर पहुँचा कि, 'किसी भी तरह की तुलना के आधार पर मैं अपने देश को अच्छा या बुरा नहीं कह सकता' बल्कि इसे इसके ही परिप्रेक्ष्य में देखकर ही हम सही या ग़लत का फ़ैसला कर सकते हैं।
वैसे लड़के सही होते हैं या लड़की, मुर्गी पहले आई या अंडा इनकी तरह यह बहस भी निरंतर है कि भारत कितना सही है और ग़लत। कुछ मुद्दे तो शायद शाश्वत बहस के लिए ही होते हैं। आज की कहानी इतनी ही सही। पर हाँ अब दिल्ली डायरी के पन्ने काले होते रहेंगे गम्मत पर। और इसकी पहली किस्त जल्द ही पोस्ट करूँगा जिसमें बीवीबी में मिले मेरे पहले "असाइनमेंट ऑन ऑब्ज़र्वेशन" की पूरी कहानी आप सभी के साथ भी साझा करूँगा। इस असाइनमेंट में दिल्ली मेट्रो की मेरी अपनी समझ का झलक आपको मिल ही जाएगी। असाइनमेंट में कितने मार्क्स मिलेंगे ये तो कल पता चलेगा लेकिन उसे आपके बीच रखकर कम से कम अपने अनुभव को तो आप सभी से बाँट ही सकूँगा।
wonderfull dost keepit up.
ReplyDeletegood work pankaj....i think m gonna b a regular visitor frm now on :)
ReplyDeleteKeep Scribbling ! all the best !
Shipra
panku nice one .. ye honey BEE se aur battr tha ....
ReplyDeleteऐसा लग रहा है, जैसे आप खुद ही हमें बता रहे है..मतलब यहाँ प्रत्यक्ष..। बढ़ीया । लगे रहो. वैसे मेरा एक आप ही के जैसा दोस्त वहाँ है, उसका संपर्क आपको दे रहा हूँ। उससे आपकी..खूब जमेगी..खूब जमेंगे हम...
ReplyDeleteसुश्रुत
hmm... logical pankaj :) like it... good work without any flaw :)
ReplyDeletehey pankaj ... the blog which u have written is ossom ... and in future im looking forward to it to read ur next addition .. and as audience u will find me everywhere to admire ur work to see,listen and to read
ReplyDeleteur frnd and admirer
rahul kashyap .......