लाइफ़ एट मेट्रो - भाग दो
मेट्रो स्टेशन पर ज़िंदगी की दौड़-भाग देखते हुए काफ़ी समय हो गया था। मेट्रो में चढ़ती-उतरती भीड़ की हरकतें, उनकी कतारें, किसी का गिरना-टकराना इन सबके बीच में मेट्रो ट्रेन मेरे विचारों के बीच से कहीं खो सी गई थी। अब मेट्रो ट्रेन मेरे केंद्रबिंदु पर थी। हमेशा लंबी-चौड़ी ट्रेनें देखी थी। लार रंग की, नीले रंग की, या फिर राजधानी या केरल एक्सप्रेस की तरह रंग बिरंगी। ऐसे में धूसर रंग में चमचमाती मेट्रो ट्रेन जब पहली बार देखी थी तभी भा गई थी। सिलेंडर के आकार की ये तेज़ गाड़ी देखने में बहुत अच्छी लगती है।
हॉलीवुड की फ़िल्मों में देखी थी मेट्रो टेन जो आगे से एक दम नुकीली होती है ताकि डायनेमिक्स के नियमों के विरूद्ध वो हवा को काटती बहुत तेज़ी से दौड़े। यहाँ की मेट्रो ट्रेन आगे से एकदम सपाट है। ध्यान से देखा जब तो मैंने कल्पनाओं में ही इसे बिल्कुल कार्टुन नेटवर्क पर आने वाले बच्चों के बेसिरपैर के कार्टून धारावाहिकों से जोड़ लिया। वैसी ट्रेन जिसके आँख, नाक, कान, मुँह सब होता है और वो बात भी करती है। दिल्ली मेट्रो की बनावट में भी मुझे वही दिखाई देने लगा। आगे दो बड़े-बड़े काँच और उनके नीचे छोटी-छोटी लाइट्स जैसे दो आँखों का अनुभव करा रही थी। उनके ठीक बीच में दिल्ली मेट्रो का लोगो गोल-गोल नाक की तरह दिखता है। और रही मुँह की बात तो वो भी दिखाई दे गया। मेट्रो पर आगे लगी लाइट्स और उसके लोगो के आस-पास चाँदी के रंग की एक मोटी सी लाईन ऊपर से होती हुई नीचे तक आती है बिल्कुल अंग्रेज़ी के “यू” अक्षर की तरह जो एक बच्चों की रेल के मुँह जैसा अनुभव देती है। नीचे बड़े-बड़े अक्षरों में “BOMBARDIER” लिखा है। जैसे बच्चों की ट्रेन पर ब्रांड का नाम होता है ठीक वैसे ही। बच्चों की ट्रेन देखकर तो ख़ुशी होती थी। इसे देखकर ख़ुशी तो होती है लेकिन डर भी लगता है कि कहीं ये कार्टून फ़िल्मों की वो गंदी वाली ट्रेन न हो जो सबको खा जाती है।
इस रेल के डिब्बे या फि़र मेट्रो क्यूब्स कहें, ऐसे आयत आकर के हैं। बचपन में घर बनाने के लिए यही आकार सबसे ज़्यादा काम आता था। चार-आयत बनाए दीवारों के, फिर दो और खिड़कियों के लिए और एक से दरवाज़ा बन जाता था। मैंने मेट्रो के क्यूब्स में भी एक घर देख लिया जिसमें दो आयत दरवाज़ें है और दो बड़ी-बड़ी सी खिड़कियाँ भी हैं। वैसे इस मेट्रो की बोगी में 4 गेट होते हैं और दो दरवाज़ों के बीच में मेट्रो के दो लोगों बने हैं। ऊपर से देखो तो इस तरह लगता है जैसे गाँवों में घरों पर लगने वाले खपरैलों को अच्छे से सज़ा कर एक लाइन में मेट्रो के ऊपर लगा दिया है। ऊपर छत पर ही इलेक्ट्रीक सिस्टम इंस्टॉल है जो इसे बिजली से चलने में मदद करता है। और इन ख़परैलों के नीचे बड़े-बड़े एसी सिस्टम्स लगे होंगे। वैसे हद ही हो गई कहाँ मेट्रो की छत और कहाँ गाँव में घरों के ऊपर बिछने वाले ख़परैल। ये मन भी दो चीज़ों के बीच में जाने कहाँ-कहाँ से क्या तालमेल बैठा लेता है।
मेट्रो के गेट खुल गए अचानक जब मैं उसकी बाहरी बनावट को देख रहा था। कुछ मेट्रो में दरवाज़ों के ठीक ऊपर एक पीली बत्ती जलती है। जब भी वो दरवाज़ें खुलने या बंद होने लगते हैं, तब वह बत्ती जलती-बुझती है। इस देखकर मुझे रामायण में ताड़का राक्षसी की याद आ गई। जब हनुमान उसके मुँह के अंदर जाते हैं तो ताड़का का मुँह भी ऐसे ही खुलता और बंद होता है। पहले के स्पेशल इफ़ेक्ट्स को देखना कितना मज़ेदार होता था। अगर रामानंद सागर ने ताड़का की आँखों में इस तरह का लाइट इफ़ेक्ट डाला होता तो वो और भी भयानक लग सकती थी। ख़ैर अब तो सबकुछ संभव है।
अचानक से एक और मेट्रो स्टेशन पर प्रवेश करती है। जब भी मेट्रो आती है तो लगता है सुरंग में से अचानक से किसी ने कोई गोला छोड़ा है जो आकर सीधे आपकी जान लेने वाला है। और जब ये स्टेशन पर आकर ब्रेक लगाती है तो लगता है जैसे 1000 घोड़ों की लगाम एक साथ खींच दी गई है।
मैं जब स्टेशन पर आया था तब यहाँ कानों में कुछ अजीब सी आवाज़ के कारण सनसनी होने लगी थी। अब इतनी देर के बाद वो आवाज़ भी नहीं सुनाई दे रही है। शायद इतनी देर यहाँ रूकने का असर है। हम आदी हो जाते हैं इस तरह ही चीज़ों के कुछ ही देर में। आवाज़ों के साथ, रिश्तों के साथ, इंसानों के साथ, दोस्तों के साथ, अपनी गाड़ी के साथ। शायद यही मनुष्य की प्रवत्ति होती है।
इतना गंभीर होना ही था कि ध्यान फिर ज़िंदगी पर चला गया। सामने ब्रिज पर दो लड़के हाथों में हाथ डाले मस्ती में बातें करते, हँसते हुए चले आ रहे थे। उनके बारे में कुछ ग़लत न सोचने की इच्छा रखते हुए भी मन में सेक्शन 377 और गे राइट एक्ट का पूरा मसला घूम गया। कितना हव्वा बन जाता है समाज में कि आप कितने ही उदारवादी सोच के हों, चाहे जितनी खुले दायरे का सोच रखते हों फिर भी मज़ाक और व्यंग में ही सही आप वो बातें सोचने लग जाते हैं जो सामान्यत: आप नहीं मानते हैं। इस तरह की बातों को इतना बढ़ा-चढ़ा दिया जाता है कि हम आदी हो जाते हैं। शायद वही मनुष्य प्रवृत्ति वाला नियम यहाँ पर भी लागू हो गया है।
अब काफ़ी देर हो गई है मेट्रो के बारे में देखते हुए। और मैं भी यहाँ खड़ा किसी ट्रैफ़िक हवलदार से कम काम नहीं कर रहा हूँ। जिसको देखो सीधे मेरे सामने आकर खड़ा हो जाता है और रास्ता पूछने लगता है। कभी-कभी तो चिढ़ होने लगती है। अरे आप पढ़े-लिखे हैं सामने पढ़ लिजिए अगर वहाँ नहीं समझ आता है तो पूछिए न। वैसे ये चिढ़ एक ही साथ थोड़े ही समय में बहुत सारे लोगों द्वारा रास्ता पूछने के कारण हो गई है। वरना सामान्यत: तो मैं ऐसा नहीं हूँ। सच है एक ही जगह बहुत देर बुत बनकर खड़े रहने से अपने स्वभाव में भी परिवर्तन आ ही जाते हैं।
मेट्रो ट्रेन की बाहरी काया के दर्शन ने तो कल्पनाओं को अलग ही पर दे दिए थे। अब समय था कि ज़रा देर मेट्रो के अंदर के भाग को भी महत्व दिया जाए। हमने वहीं ब्रिज के ऊपर से ही मेट्रो के अंदर के माहौल को भाँपने की कोशिश भी की। पहली मेट्रो जैसे ही आई थी और जो भीड़ मेट्रो से निकलकर प्लेटफ़ॉर्म पर फैल गई थी मन में आया कि अब दिल्ली की हाईटेक मेट्रो और मुंबई की लोकल ट्रेनों में ज़्यादा अंतर नहीं रह गया है। सुबह और शाम को कार्यालयीन छुट्टी के समय मेट्रो में भीड़ का अंदाज़ा लगाना कठिन ही होता है। इन समय आप मेट्रो में आराम से यात्रा कर सकेंगे ये सोचना अब तो बेमानी ही होगी। पहले आरामदायक यात्रा की पहचान बन चुकी मेट्रो भी अब भीड़ की मार झेल रही है। जिधर देखें ऊधर आपको भीड़ दिख जाती है – मेट्रो स्टेशन पर, प्लेटफ़ॉर्म की लंबी कतारों में, या फिर मेट्रो के अंदर भी।
मेट्रो के अंदर की बात की जाए तो सुबह और शाम के समय में यनि मेट्रो के अंदर देखें तो आपको मेट्रो की छत पर लगे पाईप्स और हैंडल पर हाथ ही हाथ दिखाई देंगे। एक दूसरे में गुँथे हुए और उलझे हुए हाथ। यही हाल मैंने तब भी देखा था जब मैं दिल्ली पहली बार आया था और ब्लू लाइन बस में यात्रा की थी। इन दोनों दृश्यों में अंतर केवल आम लोगों का था। ब्लू लाइन में यात्रा करने वाले एक अलग वर्ग के लोग हो गए हैं और मेट्रो का एक अलग वर्ग बन गया है। हालाँकि दोनों ही साधन किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं है।
इतनी भीड़ में अंदर नज़र तो चली ही गई थी। एक लड़के को देखा अचानक तो वो भीड़ में गेट पर जैसे-तैसे खड़ा तो हो गया फिर अपना हाथ बाहर निकालने की कोशिश करने लगा। थोड़ी मशक्कत के बाद उसने अपना हाथ भीड़ में से निकाला और अपने सीने पर लगे मोबाइल के हैंड्सफ़्री का बटन दबाया और बात करने लगा। सच में यदि इतनी भीड़ में किसी का मोबाईल बज भी जाए तो उसे उठाने में कितनी दिक्कत होगी। चलिए, मोबाइल उठाने की बात तो ठीक है, इतनी भीड़ में यदि किसी को खाँसी या छींक आ जाए तो क्या हो? आस-पास खड़े लोगों की डाँट सुनने को मिलेगी और साथ में असभ्य होने का ठप्पा लगा दिया जाएगा सो अलग। पर इतनी भीड़ में आख़िर कोई करेगा भी तो क्या। वैसे इन बातों का फ़ायदा सामान वाले यात्री को हो सकता है। वो ख़ुद और उसका सामान मेट्रो के अंदर की भीड़ की धक्कामुक्की की बदौलत अपने आप ही भीड़ में अपनी जगह बना लेगा।
मेट्रो में वाकई बहुत भीड़ हो गई है। मुझे याद आ रहा है जब पहली बार मैंने मेट्रो में सवारी की थी, तब तो मैंने बैठकर यात्रा की थी। और एसी की ठंडी हवाओं से ऐसा लग रहा था जैसे होटल की लॉबी में बैठकर किसी की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। किंतु अब तो ऐसा नहीं लगता है, कभी-कभी तो शक होने लगता है कि मेट्रो में एसी चालू अवस्था में है भी या नहीं। अंदर भीड़ के बीच में फँसकर खड़े होता हूँ तो घुटन होने लगती है। कभी ताज़ी हवा में साँस लेना भी होती है तो अपनी ऊँचाई का लाभ लेकर सिर ऊपर करता हूँ और साँस ले लेता हूँ। अभी तो मुझे मेट्रो के अंदर कोई भी ऐसा करता नहीं दिख रहा है ।
मेट्रो के अंदर देखने पर ऐसा लग रहा है जैसे किसी ग्लास हाउस को देख रहा हूँ। एक ऐसा ग्लास हाउस जिसमें आप ताज़गी नहीं महसूस कर सकते हैं। हाँ ग्लास हाउस तो बहुत खुला-खुला सा अनुभव दिलाता है। मैंने अपने मोहल्ले में अभी-अभी बना एक ग्लास हाउस देखा है। पर अभी तक वहाँ कोई रहने नहीं आया है। उस घर को देखकर हमेशा यही याद आता है कि काश! उस घर के मालिक ने बाहर या अंदर कुछ पौधे लगा दिए होते। पता नहीं अब वहाँ पर क्या हाल होगा। मैंने तो पिछले एक महीने से उस जगह को नहीं देखा। ख़ैर जब मैं अपना घर बनाऊँगा तो इन बातों का ज़रूर ख़्याल रखूँगा।
हाँ, तो मैं मेट्रो के अंदर देख रहा था। पर लोगों के अलावा ज़्यादा कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। मैंने ख़ुद अंदर बैठकर जो देखा है वही सब याद आ रहा है। एलईडी पर चलते हुई उद्घोषणाएँ, मेट्रो के गेट पर लगे रूट मैप्स, साइड में लगे विज्ञापन, हैंडल पर चिपके स्टिकर्स, एक दूसरे से बतियाते लोग, चुपचाप कान में हैडफ़ोन लगाए संगीत की धुन में खोए लोग, या फिर इतने शोर या भीड़ में भी पुस्तक पढ़ते लोग। क्या पता वाकई पढ़ते भी हैं या ढोंग करते हैं। मैं तो ऐसा नहीं कर सकता। वैसे सोचा ज़रूर है कि मेट्रो में पढ़ने की शुरूआत की जा सकती है।
वैसे मेट्रो के अंदर अगर घर बना लिया जाए तो मनुष्यों का हाईटेक इग्लू जैसा लगेगा। हाँ, क्यों नहीं हो सकता। जब हाउसिंग बोट्स हो सकती हैं तो रेल की पटरियों पर दौड़ने वाला घर भी तो बनाया जा सकता है।
अरे!!! घर तो मुझे भी जाना है और 9.15 समय हो गया है। मेरी ट्रेन का समय 10 बजे का है तो मुझे दौड़ना चाहिए। इतने समय से बस मैं ही जड़ होकर खड़ा हूँ पूरे मेट्रो स्टेशन पर बाक़ी सब तो दौड़ती-भागई ज़िंदगी का शिकार हैं। अब मुझे भी शिकार हो जाना चाहिए और दौड़ लगानी चाहिए वरना मेरी ट्रेन छूट जाएगी।
मैंने एक बार कहीं पढ़ा था – “You can observe a lot just by watching.” और ठीक इसके विपरीत “You can see a lot just by observing.” वाकई आज जब असाइनमेंट करने के लिए रवाना हुआ था तब यही पंक्तियाँ थीं मन में कि जो भी दिखाई देगा उसे देखेंगे और देखकर ऑब्ज़र्व भी किया जाएगा। इस असाइनमेंट को लेकर शुरू से जो उत्साह था, वो इसका आख़िरी शब्द लिखने तक बना रहा।
असाइनमेंट की शुरूआत में यही तय किया था कि जो कुछ भी देखूँगा उसके नोट्स क़ाग़ज़ पर उतार लूँगा और बाद में उसे आराम से टाइप किया जाएगा। किंतु एक अलग ही अनुभव हुआ ये असाइनमेंट लिखते हुए भी। जैसे-जैसे अपने नोट्स को पढ़ता जा रहा था और उस वाकये को टाइप करता जा रहा था ऐसा लग रहा था जैसे मैं अभी भी रात के 8-9 के बीच में राजीव चौक स्टेशन पर मूरत की तरह खड़ा हूँ और वो सब घटित हो रहा है। वो ऑब्ज़र्वेशन करते समय ऐसा लग रहा था जैसे दुनिया में मेरा अस्तित्व ही नहीं है। क्योंकि सब कोई इधर-उधर भाग रहे थे बस मैं जड़वत अपनी जगह पर खड़ा सबको देख रहा हूँ। क्या किसी ने मुझे नहीं देखा था।
जैसा कि मैंने असाइनमेंट की शुरूआत में भी अनुभव किया कि जो मैं कर रहा हूँ अगर किसी ने मुझे ये करते देखा तो मुझसे कई सवाल पूछे जा सकते हैं और उनका जवाब देना भी मेरा उत्तरदायित्व होगा। लेकिन एक घंटे का समय कब निकल गया मालूम ही नहीं चला। एक और अंग्रेज़ी लाइन है कि - "He alone is an acute observer, who can observe minutely without being observed.” मैं भी कहीं खो गया था ये काम करते हुए शायद इसलिए ही मेरा अस्तित्व भी किसी को दिखाई नहीं दिया, सिवाय उनके जो आ-जाकर मुझसे हर समय रास्ता पूछते रहे।
यूँ तो कुछ देर अगर लिखने को कह दिया जाए तो हालत ख़राब हो जाती है। हमारी पढ़ाई में वैसे भी लिखने की आदत तो स्कूल के बाद से बहुत कम हो जाती है। और जब यह असाइनमेंट किया तो मुझे ख़ुद आश्चर्य हुआ ये देखकर कि मैं लगातार एक घंटे तक अपनी नज़रे इधर-उधर दौड़ाता रहा और लगातार लिखता भी रहा। जब अंतत: एक घंटा पूरा हुआ तब जाकर ध्यान गया कि अब हाथों में और उंगलियों में दर्द हो रहा है। वरना तो वो एक घंटा पूरी तरह बाक़ी किसी भी चीज़ का होश नहीं रहा। मैं तो ये तक भूल गया कि कहीं कोई मेरे पैर के पास से मेरा बैग उठाकर भाग तो नहीं गया।
असाइनमेंट के दौरान ही जब बार-बार लोगों ने रास्ता पूछा तब अपने व्यवहार के बारे में भी कुछ देखने समझने को मिला। कैसे एक ही बात कुछ ही अंतराल में यदि बार-बार दोहराई जाती है तो हम विचलित हो सकते हैं। किसी अनजान व्यक्ति को रास्ता दिखाना वैसे तो बहुत अच्छा लगता है और भलाई का काम भी है। लेकिन उस दिन कोफ़्त होने लगी थी। ऐसा लग रहा था जैसे ये लोग जानबूझकर मेरे काम में बाधा डाल रहे हैं।
इसके अलावा ही यह भी जाना कि कैसे हमारा मन और हमारा शरीर शांति से खड़े रहने पर किसी भी गतिविधि में भाग न लेने पर कहीं तल्लीन होने पर बस उसी में खो जाता है। मेट्रो पर जो आवाज़ें अंदर जाते ही परेशान कर रही थीं, वो कुछ देर बाद सुनाई देना भी बंद हो गई थीं। हमारा शरीर आस-पास के वातावरण के साथ बहुत जल्दी तालमेल बैठा लेता है।
अब इतना तो साफ़ हो ही गया है कि जो ऑब्ज़र्वेशन एक आदत मात्र था उसे करने के और भी कई तरीके हो सकते हैं। और इस प्रकार के विशेष ऑब्ज़र्वेशन के नतीजे भी अलहदा ही होते हैं।
इति दिल्लीदेशे मेट्रो अध्याये ऑब्ज़र्वेशन पाठ समाप्त!!!
चित्रों के लिए Google देव और MS Word महाराज की जय!
hmm... now I can resist to congratulate u for this work.. second part was even more interesting... gud work man :)
ReplyDeletepar tu indore to aaya hi nahi tha jharu.....
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