Monday, September 27, 2010

लाइफ़ एट मेट्रो

ऑब्ज़र्वेशन – अवलोकन वो काम जो कोई भी काम करते हुए किया जा सकता है। एक ऐसा काम जो मुझे लगता है कि मैं करना पसंद करता हूँ। किसी के बात करने का ढंग, किसी के बोलने का लहज़ा, किसी के चलने का तरीका, तो किसी के कपड़े पहनने या हाव-भाव बदलकर बात करने का अंदाज़ – ये सब कुछ देखने और अपनी तरह से उसे समझने में मुझे हमेशा ही आनंद मिला है।

भारतीय विद्या भवन में रेडियो एंड टीवी प्रोडक्शन के स्नातकोत्तर का पहला असाइनमेंट भी ऑब्ज़र्वेशन पर ही मिला। हाथ में वो क़ाग़ज़ थामकर जब पढ़ा तो मज़ा आया कि अब तक जो काम बिना किसी उद्देश्य के करता था, इस बार किसी वजह से करने को मिला है। वो भी पढ़ाई के सिलसिले में। उसी वक़्त ज़हन में ये ख़्याल आ गया था कि मुझे कहाँ जाना है और किसी तरह की ज़िंदगी और किस जगह का ऑब्ज़र्वेशन करना चाहिए। मुझे दिल्ली के राजीव चौक मेट्रो स्टेशन में अपने असाइनमेंट का विषय दिखाई दिया। और उसी शाम एक दोस्त से इस बात की चर्चा करते हुए ही इस असाइनमेंट का शीर्षक भी मिल गया ‍मुझे। उसने कहा लाइफ़ इन ए मेट्रो और हमने कहा कि हमारे असाइनमेंट का शीर्षक होगा लाइफ़ एट मेट्रो
मूलत: इन्दौर शहर से दिल्ली में बसने का अनुभव वैसे ही ले रहा हूँ। मेरे लिए ख़ुद एक मेट्रो सिटी में आकर यहाँ की आबोहवा में ख़ुद को ढालने, और आसपास के माहौल को अपने जैसा बनाने की जद्दोजहद तो पहले ही शुरू हो चुकी है। अब जब कुछ ऑब्ज़र्व करने की बात आई तो सबसे पहले दिमाग़ में मेट्रो स्टेशन पर दौड़ती मेट्रो ट्रेन का ही विचार आया। सोचा क्यूँ न कुछ वक़्त उस जगह पर चला जाए और बैठा जाए जहाँ पर मेट्रो की गति के साथ ही आम जीवन भी बहुत तेज़ भागने लग जाता है। जब सोचा कि मेट्रो स्टेशन पर ही एक घंटा बिताना चाहिए तो बिना किसी शक़-ओ-शुबह के राजीव चौक मेट्रो स्टेशन ही पहली पसंद बना, जो अपने आप में मेट्रो स्टेशन कम और मेट्रो जंक्शन ज़्यादा है।
यह असाइनमेंट कैसे शुरू होगा ‍और कैसे समाप्त होगा इसकी उलझन तो बनी हुई थी। फिर भी कहीं से तो शुरू करना ही था। इसलिए एक प्रक्रिया तय कर ली पहले ही किस तरह से हमें चीज़ों को देखने होगा और किस तरह मैं उन्हें कलमबद्ध कर सकूँगा। यही विचार किया कि मेट्रो स्टेशन पर एक घंटा बिताते समय हाथ में क़ाग़ज़ और कलम दोनों रहेंगे विचार, मन और आँखें जिधर भी दौड़ेंगी बस उन बातों को शब्दों में बाँध लूँगा ताकि बाद में याद करने में परेशानी न हो। असाइनमेंट मिलने के 2-3 दिनों तक तो बस ख़्याली पुलाव ही पकते रहे कि आज जाता हूँ राजीव चौक, कल चला जाऊँगा। अंतत: एक दिन अचानक शाम को फ़ितूर चढ़ा कि दो-चार दिन की छुट्टी है तो क्यों न इन्दौर चला जाए। फिर याद आया कि असाइनमेंट के लिए अभी तक मेट्रो पर जाकर समय नहीं बिताया है। हालाँकि मेट्रो से सफ़र तो रोज़ ही करता हूँ लेकिन ऑब्ज़र्वेशन के लिए राजीव चौक पर एक घंटा बिताना ज़रूरी था। सो दुनिया के सभी तथाकथित महत्वपूर्ण कामों को छोड़कर 20 अगस्त 2010 को लगभग आठ बजे हम मेट्रो स्टेशन पहुँच गए। इस उम्मीद के साथ कि एक घंटे में अवलोकन कार्य पूरा करके हम नौ बजे निकल जाएँगे और 10 बजे अपनी इन्दौर की ट्रेन भी पकड़ लेंगे।
जैसी कि उम्मीद थी – राजीव चौक मेट्रो स्टेशन या जंक्शन कह लें, भीड़ से पूरी तरह खचाखच भरा हुआ। मेट्रो के आने जाने का शोर और उन आवाज़ों के बीच अपनी बातों में गुनगुन करते लोग। सबसे पहले मन में यही विचार आया कि आख़िर खड़ा कहाँ हुआ जाए जहाँ से सब कुछ देखने और समझने का मौका मिलेगा। चारों तरफ़ नज़रें दौड़ाई और यकायक स्टेशन के बीचों बीच बने ब्रिज पर चढ़ गया। वहाँ चढ़कर एक बार नीचे नज़र डालकर देखा तो सब कुछ दिखाई दे रहा था। ब्लू लाईन के दोनों प्लेटफ़ॉर्म्स, येलो लाइन का प्रवेश द्वार और दो निकास द्वार भी। मन में विचार आया कि यहाँ से बहुत कुछ देखने को मिलेगा एक साथ। हमने कंधे पर से अपना बैग नीचे रखा, घड़ी देखी और नोटपैड निकाल कर खड़े हो गए। शुरूआत में ऐसा लगा मानो यहाँ खड़ा होकर में किसी गेट का चौकीदार हूँ जो आने जाने का समय नोट करने के लिए एक रजिस्टर बना कर गेट पर बैठ जाता है। पर यहाँ चौकीदारी किसी और चीज़ की करनी थी। स्टेशन पर जमा भीड़ के हाव-भाव की, उनकी हरकतों की उनकी जल्दबाज़ी की, मेट्रो के शोर की, लोगों की आवाजाही की और हर तरह की चौकीदारी जो मैं उस एक घंटे में कर सकता था।
     यूँ तो अपने तरीके का से अवलोकन प्रक्रिया या ऑब्ज़र्वेशन करने में अलग ही आनंद आता है। किंतु जब पहली बार किसी उद्देश्य पूर्ति के लिए समय और स्थान तय करके ऑब्ज़र्व करने बैठा तो लगा कि आज कोई बहुत बड़ा तीर मारना है। मन में विचारों की उथलपुथल मचने लगी। डर सा भी लगा कि एक तो अनजान शहर, वो भी राजधानी दिल्ली, ऊपर से बढ़ी हुई दाढ़ी के साथ हाथ में क़ाग़ज़ और कलम लिए दिल्ली के राजीव चौक जैसे व्यस्ततम् मेट्रो स्टेशन पर कुछ लिख रहा हूँ। समय भी अनुकूल नहीं था, 15 अगस्त का त्यौहार 4 दिन पहले ही विदा हुआ था। दिल्ली इन दिनों में तो ख़ास तरह से सुरक्षित बनाई जाती है। उस पर मेरा यूँ मुँह उठाकर कुछ करना ग़लत भी समझा जा सकता था। वाकई अगर किसी सुरक्षाकर्मी या गार्ड ने ठीक से मुझे ऑब्ज़र्व किया होता तो शायद एक-दो घंटे की पूछताछ और तसल्ली करने के बाद ही मुझे छोड़ा जाता। पर शुक्र है ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और मुझे आसानी से अपना ऑब्ज़र्वेशन करने का अवसर मिला। और अंतत: मैंने अपना काम शुरू भी कर लिया।

राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर कुछ ऑब्ज़र्व करने का उद्देश्य लेकर मैं ब्रिज पर खड़ा हो गया। मेरी दाईं और बाईं तरफ़ सीढ़ियाँ और सामने ब्रिज का पूरा हिस्सा जो इस प्लेटफ़ॉर्म को दूसरे से जोड़ता है। दोनों तरफ़ नज़रें घुमाकर देखा तो बस लंबी-लंबी कतारें दिखी जिनमें लोग मेट्रो के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। वो सभी कतारें और उनमें खड़े लोग बिल्कुल शांत हैं। सब अपने कामों में तल्लीन है, कोई फ़ोन पर बात करने में, तो कोई एक दूसरे को ताकने में, तो कोई बार-बार मेट्रो के आने का समय देख रहा था। अगली मेट्रो बस दो‍ मिनट में ही प्लेटफ़ॉर्म पर आने वाली थी। सामने देखा तो कई अनजान चेहरे मेरी तरफ़ बढ़े आ रहे थे। ऐसा लगा जैसे अभी आकर हाथ मिलाएँगे और पूछेंगे क्या बात है जनाब? यूँ अकेले खड़े होकर क्यों क़ाग़ज़ काले कर रहे हो? चक्कर क्या है हमें भी बता दो जिसका शायद मेरे पास कोई जवाब नहीं होता। और अगर उन अजनबी लोगों से कह भी देता कि ऑब्ज़र्वेशन कर रहा हूँ सभी चीज़ों का तो उन्हें ये पूरी कहानी समझाना बड़ा मुश्किल सा काम लगता।
इतना सोचना चल ही रहा था कि अचानक ध्यान अपने पैरों की तरफ़ गया जो कुछ एहसास करा रहे थे। ‍उस ब्रिज पर कई लोग सामने से आ रहे थे। और वह ब्रिज ऐसा लगने लगा मानो भूकंप के झटकों की मार झेल रहा है और अभी अगर 20-25 लोग और चढ़ गए ब्रिज पर इधर से उधर आने जाने के लिए तो ये तो भर-भराकर गिर ही जाएगा। और इसके साथ मैं अपने भी अपने हाथ-पैर तुड़वा बैठूँगा। बिलकुल वो अनुभव याद आ गया जैसा कि किसी असली रोड़ ब्रिज पर खड़े होने पर लगता है। विशेषकर जब कोई ट्रक निकलता है वहाँ से तो लगता है कि गार्डर के साथ पूरा ब्रिज भी हिल गया है। और ये किस्मत है हमारी कि ब्रिज के साथ हम भी सही सलामत खड़े हैं।
अचानक एक बंधु मेरे नज़दीक आते हैं और पूछते हैं भाई! ये शादीपुर के लिए मेट्रो कहाँ से मिलेगी। इस जगह का नाम तो सुना हुआ था, पर अभी दिल्ली में आए इतना भी समय नहीं हुआ था कि किसी को रास्ता समझा सकूँ। मैंने अंग्रेज़ी में क्षमा माँगते हुए उस भाई को किसी और अनुभवी से पूछने का कह दिया। मैं पैड और पेन लेकर खड़ा था तो शायद उसे लगा होगा कि मैं पुराना चावल हूँ दिल्ली का, यहाँ बहुत समय से पढ़ रहा हूँ और यहाँ के बारे में जानता हूँ और शायद उसकी मदद कर सकता हूँ। बुरा लगा कि उसकी मदद नहीं कर सका। आपके कपड़े, आपके हाथ में रखी चीज़ें और आपके आसपास का वातावरण भी कितना भ्रम पैदा कर देता है आपके व्यक्तित्व को लेकर यही विचार फिर मन में चलने लगे ।
मेट्रो प्लेटफ़ॉर्म्स पर लगे एलईडी टाइमर्स बता रहे थे कि मेट्रो बस एक मिनट के अंदर ही प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँच जाएगी। जो कतारें 2-5 से शुरू हुईं थीं अब तक बहुत लंबी हो चुकी थीं। इतना लिख ही रहा था कि मेट्रो अपना हॉर्न बजाती हु्ई प्लेटफ़ॉर्म पर प्रवेश कर गई। दरवाज़ा खुला और अंदर की भीड़ ऐसे बाहर निकली जैसे वो किसी पिंजरे में कैद थे और अंदर उन पर कोड़े बरसाए जा रहे हों। गेट खुलते ही धड़धड़ करके आधा डिब्बा खाली हो गया होगा। कतार की भीड़ अंदर चढ़ी और मेट्रो रवाना भी हो गई। उस समय ट्रैन के गेट पर ही एक अम्मा फ़ँस गई थी। हरे रंग का सुट पहने और दुपट्टे को अपने सर पर ऐसे डाले हुए जैसे किसी का सदका करके आ रही होंगी। शायद उन्हें इस स्टेशन पर नहीं उतरना था और वो बदकिस्मती से गेट पर ही खड़ी थी। भीड़ ने तो स्टेशन पर गेट खुलते ही अपनी मंज़िल आने की ख़ुशी में बिना इधर उधर देखे धक्का मुक्की की और जैसे-तैसे बाहर आने का प्रयास करने लगे। कोई बेरहमी से अम्मा को धक्का दे गया, कोई धक्का देने के बाद सॉरी कहकर आगे निकल गया। वो अम्मजी कोशिश करके गेट से हटने में सफल हो ही गईं आख़िरकार। लेकिन उसमें भी उनकी मेहनत कम और गेट से अंदर की ओर घुसती भीड़ का योगदान ज़्यादा रहा होगा।
विचारों की धुन में अगली मेट्रो भी प्लेटफ़ॉर्म पर आ गई। वाकई मेट्रो ट्रेन के आने के पहले तो बहुत ही सभ्य और शांत कतारें दिखाई देती हैं। किंतु बाद में बस लोगों की भीड़ और रेलमपेल ही दिखाई देती है। ठीक वैसे जैसे आजकल भी गाँवों के मेलों में दिखाई देती है। फ़र्क केवल यह है कि यहाँ, मेट्रो के मेले में जींस-पेंट, टीशर्ट, टॉप, सलवार-कमीज़, वेस्टर्न आउटफ़िट्स में लिपटे लोग हैं और वहाँ मेलों में धोती-कुर्ते, लहंगा या जनानी धोती का बोलबाला होता है। राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर व्यस्ततम् समय में सच ऐसा ही मेला देखने को मिला मझे। जहाँ झूले नहीं थे बस हाईटेक मशीनें दिख रहीं थी। एक टोकन के स्पर्श से खुलन-बंद होने वाले गेट, अपने आप ऊपर-नीचे जाती सीढ़ियाँ, टिमटिमाते सूचना पटल और भी बहुत कुछ।

इतने में किसी लड़की ने आकर चाँदनी चौक की मेट्रो के बारे में पूछा जो मैं बता सकता था क्योंकि मुझे उस मेट्रो रास्ते के बारे में पता जो था। इसके बाद ही एक महिला, वृद्धा, एक आदमी और एक बच्ची ब्रिज पर चढ़े और उन्होंने मयूर विहार मेट्रो का रास्ता पूछा। इन दोनों को सही जानकारी देने का सुख मिला मुझे। काश मुझे शादीपुर के बारे में भी पता होता तो उस पहले भाई की भी मदद कर सकता। पर आप एक ही समय में सबको ख़ुश नहीं कर सकते हैं। मन में आया कि भले ही आप सबकुछ न जानते हों लेकिन जितना भी जानते हैं उसमें भी लोगों की मदद की जा सकती है।
प्लेटफ़ॉर्म पर लगी मशीनों के बारे में सोच ही रहा था और वहीं पर लगे LCD स्क्रीन्स पर आँख चली गई। जिन पर म्यूट आवाज़ में विज्ञापन चल रहे थे। विज्ञापन में धोनी और आरपी सिंह आम्रपाली का प्रचार करते दिखाई दे रहे थे। आम्रपाली तो आभूषणों का एक ब्रांड है। हो सकता है शादी के बाद धोनी साहब भी आभूषणों का विज्ञापन करने के लिए ब्रांड बन गए हों। विज्ञापनों में वैसे भी सब कुछ संभव हो सकता है। नहीं-नहीं ये तो आम्रपाली कंस्ट्रक्शंस का विज्ञापन है। वैसे अभी हाल ही में तो एशिया कप हुआ था। और अभी भी त्रिकोणीय श्रृंखला चल ही रही है श्रीलंका में जहाँ पर भारतीय क्रिकेट टीम खेल रही है। उस श्रृंखला में क्या चल रहा है इस बारे में तो कोई ख़बर ही नहीं है मुझे। बड़े दिन से पेपर नहीं पढ़ा और न ही टीवी पर समाचार देखने का मौक़ा मिला है। न ही ये पता है कि अब कौनसा रियलिटी शो शुरू हुआ है। हाँ मेट्रो में सारेगामापा के विज्ञापन ज़रूर देखे हैं। काश वो देख पाता। अब जब तक टीवी की व्यवस्था नहीं होती तब तक कम से कम समाचार पत्र तो पढ़ने ही हैं रोज़। उन्हें रोज़ पढ़ने की आदत दिल्ली आते ही यहाँ अपना आशियाना बसाने के चक्कर में छूट सी गई है जिसे फिर से जीवित करना पड़ेगा। वैसे मेट्रो स्टेशन पर इतनी भीड़ में भी म्यूट विज्ञापन असर करते हैं। वैसे भी अगर इनमें आवाज़ होती तो कौन सा हर एक यात्री के कान में पहुँचकर वो विज्ञापन उसे प्रभावित करने की गारंटी ले लेता।
विज्ञापन तो म्यूट ही थे लेकिन स्टेशन का शोर म्यूट नहीं किया जा सकता था। मेरे पीछे ही येलो लाइन की मेट्रो का प्रवेश और निकास द्वार था। निकास द्वार जहाँ से येलो लाइन से आए यात्री बाहर निकलते हैं वहाँ एक गार्ड खड़ा होकर हाथ हिलाकर सबको बाहर जाने का रास्ता दिखाकर कसरत कर रहा था। बिल्कुल वैसे जैसे सड़कों पर टैफ़िक पुलिसवाले जवान करते हैं। फिर भी वो लगो इतने मोटे क्यों होते हैं। पता नहीं शायद पेट का बाहर निकलना एक सफल और विशेषकर अनुभवी हवलदार होने की शारीरिक निशानी होती होगी। देखते ही देखते वहीं येलो लाइन से भीड़ का एक जत्था निकला और दौड़कर ब्लू लाइन प्लेटफ़ॉर्म पर एक नई कतार बना ली। और बाक़ी लोग दौड़ते भागते ब्रिज पर चढ़कर उस पार जाने लगे। मेरे सामने का सूना सा ब्रिज एक बार फिर भर गया और भूकंप के झटके फिर महसूस होने लगे। दिल्ली की सड़कों पर वैसे मैंने किसी को भी दौड़ते नहीं देखा, पर मेट्रो स्टेशन पर आप किसी को भी दौड़ते देख सकते हैं सिर्फ़ मेट्रो पकड़ने के उद्देश्य के लिए। मैं तो भागता हूँ ‍क्योंकि क्लास के लिए देरी हो जाती है। या फिर कहीं जल्दी पहुँचना होता है। पर यहाँ तो दिल्ली के ‍लोग बस मेट्रो पकड़ने के लिए ही दौड़ते हैं।
इस बार प्लेटफ़ॉर्म पर दाखिल हुई 1208 ब्लूलाइन मेट्रो ने बहुत पास आकर हॉर्न बजाया जिससे मेरा ध्यान उधर चला गया। मेट्रो जहाँ रूकती है वहाँ गेट के सामने ही दो कतारें बन जाती हैं और बीच में खाली जगह छोड़ी जाती है ताकि मेट्रो के यात्री आसानी से निकल सकें और फिर ये कतारे वाले लोग अंदर जा सकें। ऊपर बिज्र से खड़े होकर देखने पर ये नज़ारा ऐसा लगता है जैसे कि इंसानों ने दो पटरियाँ बना ली हैं कतारें बनाकर और जब ट्रेन आकर रुकती है तो अंदर सवार लोग पत्थरों की तरह इन पटरियों के बीच से लुढ़कते हुए बाहर आने का रास्ता बना रहे हैं।
मेट्रो स्टेशन पर हर कोई रास्ता ही पूछ रहा है क्या? और क्या बस मैं ही ऐसा बंदा हूँ पूरे स्टेशन पर जिसे सब जानकारी है। इस बार एक लड़का आया और कश्मीरी गेट की मेट्रो का पूछकर चलता बना। एक लड़की आई लगेज के भारी बैग को रेलिंग से टिकाकर नई दिल्ली जाने वाली मेट्रो के बारे में पूछने लगी। जवाब मिलते ही पसीना पोंछा और उस ओर चली गई जिस तरफ़ मैंने इशारा किया था। वो भी चलती बनी और उसके काँपते हु्ए अपने लगेज को उठाकर जाने को मैं देखने लगा। लड़कियों के हैंडबैग्स इतने भारी होते हैं। वो उनमें कितनी ही चीज़ें भरकर घूमती हैं जो महीने में एक बार काम आती होंगी। तो क्या इस तरह के लगेज में भी लड़कियाँ कुछ ऐसा सामान भरती होंगी । उफ़ ये कैसा सवाल आ गया दिमाग़ में जिसका जवाब ढूँढने बैठूँगा या सोचूँगा तो असइनमेंट की मियाद ऐसे ही निकल जाएगी। वैसे जिस ओर वो लड़की गई वहीं पर ब्लॉक ए और ब्लॉक एफ़ के निकास द्वार हैं। राजीव चौक का ब्लॉक ए पंचकुइया और खड़गसिंह मार्ग का निकास है; और ब्लॉक एफ़ से निकलकर आप जनपथ और बाराखंभा रोड़ के लिए जाते हैं। मैं भी कई बार राजीव चौक से बाहर निकलने में भ्रमित हुआ हूँ। अभी दो दिन पहले ही तो मुझे रीगल (कनॉट प्लेस) जाना था। और मैं जनपथ वाले रास्ते से निकलने के बावजूद भी सीपी के गोल-गोल चक्कर लगाकर फिर वहीं पहुँच गया था। वाकई जितनी गफ़लत राजीव चौक स्टेशन के अंदर सही मेट्रो पकड़ने को लेकर होती है उतनी ही यहाँ से बाहर सही रास्त पर निकलने में भी होती ही है। इस बीच मेट्रो ट्रेनें आ रही हैं, जा रहीं है और कतारों और उनमें उलझे लोगों की रेलमपेल अब भी जारी है।
यहाँ इस स्टेशन पर कितना अच्छा सिस्टम देखने को मिलता है। जैसे ही मेट्रो आती है उसके हर दरवाज़े पर एक गार्ड अवतरित हो जाता है। ऐसा लगता है कि या तो मेट्रो ख़ुद कोई सेलिब्रिटी है या फिर मेट्रो से उतरने वाले सभी लोग डीएमआरसी (Delhi Metro Rail Corporation) के कोई ख़ास मेहमान हैं। ख़ैर इसी बहाने कुछ देर के लिए कम से कम इतनी भीड़ में भी अनुशासन तो बना रहता है। अब भारतीयों को वैसे भी अनुशासन में रहने के लिए वर्दी का डर ज़रूरी होता है। ट्रैफ़िक पुलिस का डर, पुलिस का डर, शिक्षकों का डर, आर्मी वालों से डर, और यहाँ सिक्यूरिटी गार्ड्स का डर।
रात बढ़ती जा रही है और साथ ही साथ मेट्रो में भीड़ भी कम होती जा रही है। गार्ड्स भी अब खड़े-खड़े राहत की साँस ले रहे हैं । ब्रिज पर भी अब भीड़ नहीं है। इतनी शांति के बीच ही राजीव चौक स्टेशन की बनावट पर नज़र गई। पूरी तरह से गोलाई में बना है यह स्टेशन। जहाँ मैं खड़ा था, वहीं ऊपर छत पर गुंबद के समान एक गोला भी बना हुआ था। ठीक वैसा जैसा कि मुग़लों के शिल्पों में होता था। या गुरूद्वारों या मस्जिदों में होता है। और उसी के किनारों पर फ़्लड लाइट्स लगी हुईं थी। एक सफ़ेद, एक पीली। फिर सफ़ेद फिर पीली। ये रंगों का खेल तो समझ नहीं आया बिलकुल भी कि आख़िर ऐसा क्यों किया गया है। लेकिन ये लाइट्स देखकर ऐसा लगा जैसे कि मैं किसी स्टेडियम में पिच के बीचोंबीच खड़ा हूँ और राजीव चौक में चल रहे खेलों की जानकारी लिखता जा रहा हूँ जो मैं बाद में लोगों को सुनाऊँगा। इसी तरह का एक सीन राजकुमार संतोषी की ख़ाकी फ़िल्म में देखा था जो बहुत ख़ूबसूरत बना था। जहाँ अक्षयकुमार दौड़ते हुए स्टेडियम में पहुँच जाते हैं और अचानक से सभी फ़्लड लाइट्स एक साथ चालू हो जाती हैं। स्टेडियम में ही फिल्माया एक और सीन याद आ गया जो मुझसे शादी करोगीफ़िल्म का हिस्सा था। लेकिन वो सीन को दिन में फ़िल्माया गया था। उस सीन का तो यहाँ से कोई वास्ता ही नहीं लेकिन फ़्लड लाइट्स और स्टेडियम की बात से वो याद आ गया था।
आज भी इन लाइट्स को देखकर ऐसा लग रहा है कि शायद ये मुझ पर फ़ोकस करने के लिए लगाई गई हैं। आज राजीव चौक पर बीचोंबीच में खड़ा हूँ और ये बात सभी को पता होनी चाहिए। ये फ़ल्ड लाइट्स मेरे लिए स्पॉट लाइट्स का काम कर रही हैं। केंद्र बिंदु बनना तो वैसे भी हर मनुष्य की इच्छाओं में होता है। कोई खुलकर ये स्वीकार लेता है और कोई अपने अहंकार या अभिामन में नहीं मानता। मैं इस चकाचौंध में खो ही गया था कि दो कपल्स और एक उनका दोस्त सीधे सामने से मेरे‍ बिलकुल पास आकर रूक गए। और वही अकेला लड़का एक आह लेकर बोला अरेऽऽऽ! CCD”। शायद वो लोग कुछ देर और साथ में बैठकर बतियाना चाहते थे पर CCD देखकर ठंडे पड़ गए। आजकल तो हर युवा की अपनी पसंद है। कोई ‍पिज़्ज़ा हट का शौकीन है, तो कोई डॉमीनोज़ का मुरीद है, किसी को बरीस्ता की चुस्कियाँ पसंद हैं, कहीं पर CCD से आगे सोचा ही नहीं जा सकता। सबकी अपनी-अपनी पसंद है।
वैसे व्यस्ततम स्टेशंस पर इस तरह के कॉफ़ी ज्वॉइंट्स बनाना बहुत बढ़िया भी है। लेकिन DMRC भी दोगले मानदंड अपनाता है। यहाँ मुझे याद आ गया कि मेट्रो स्टेशन पर ज़्यादा समय बिताने से पेनल्टी चार्जेस भी काट लिए जाते हैं। मेरे साथ भी ऐसा हुआ था एक बार। अब या तो आप मेट्रो स्टेशन पर इस तरह के रेस्त्राँ न बनाएँ और अगर बना रहे हैं और लोग वहाँ बैठ कर बातें करने में समय बिता रहे हैं तो फिर आप उनसे पेनल्टी क्यूँ लेते हैं। वो भी मेट्रो स्टेशन पर ज़्यादा समय बिताने के लिए। वैसे तो मेट्रो हर 5 मिनट में आती है, तो यह तर्क देना कि यात्री इस तरह की जगहों पर बैठकर इंतज़ार कर सकते हैं, ये भी तो ग़लत ही होगा। राम जाने किस उद्देश्य को लेकर इस तरह के रेस्त्राँ खोले गए हैं मेट्रो स्टेशंस पर। और पता नहीं क्यूँ मेट्रो स्टेशन पर अधिक समय बिताने के बदले पेनल्टी चार्जेस काटे जाते हैं।
फिर किसी के टकराने की आवाज़ से ध्यान भंग होता है। देखा तो पाया कि सामने ब्रिज पर से एक गंजा आदमी सिर खुजाता हुआ मेरी ओर आ रहा था। कोने पर आते ही एक बदहवास लड़की उससे टकरा गई। वो आदमी तो आगे बढ़ गया और ये मोहतरमा हड़बड़ा कर अपना मेट्रो टोकन गिरा देती है। उसे उठाने के चक्कर में कंधे पर से बैग फिसल जाता है। कहीं पर भी जल्दी जाने या पहुँचने के लिए कितनी हड़बड़ाहट होती है । मेरे साथ भी कई बार ऐसा ही होता है। उसे देखकर चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान आ गई। या यूँ कह सकते हैं कि ख़ुद के बारे में सोचकर मुस्कुरा लिया।
बहुत देर से इधर-उधर देख रहा हूँ। आते-जाते पूछते, टकराते लोगों की ज़िंदगी को पढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ। लगता है मैंने ऑब्ज़र्वेशन के लिए क्या सही स्थान चुना है ।  किसी पार्क में जाकर बैठा जा सकता था, किसी मॉल के बाहर समय बिताया जा सकता था, या फिर अपने ही घर की गैलरी से मोहल्ले को आँका जा सकता था, फिर क्या सूझा कि मेट्रो स्टेशन आकर असाइनमेंट पूरा करने का विचार आया? यहाँ सब कुछ अलग सा है। सब कुछ कृत्रिम तौर पर बनाया गया है। ये प्लेटफ़ॉर्म, ये लाइट्स, ये मशीनें, ये होर्डिंग्स, एलिवेटर्स सब कुछ। बस एक बात है जो यहाँ पर अलग है वो है दौड़ती भागती ज़िंदगी! संभवत: आज के दिन उसी को पढ़ने और देखने का मौक़ा मिला है। इसलिए ही तो इतना समय हो गया फिर भी मन में लोगों और उनके व्यवहार और ख़ुद के अनुभव की ही बातें चल रही थीं। जिंदगी को देखते रहने में अन्य आकार-प्रकार, निर्जिव वस्तुओं की ओर कम ही ध्यान गया।

अगली पोस्ट में जारी रहेगी "लाइफ़ एट मैट्रो"........

चित्रों के लिए हमेशा की तरह "Google" और "MS Word" का धन्यवाद!!!

5 comments:

  1. behtareen prastuti!!!!


    kafi kuch aam zindagi ki tarah hi par 'AAM' katai nahi. nise observation ,khud ka bhi observation kar liya he jnab.
    hamari badhaiya sweekar kare!

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  2. nice work with keen observation.... keep it up

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  3. तुम्हारी लेखनी परिमार्जित हो गई है। मतलब writing में maturity आ गई है। अभी ये त्वरित टिप्पणी है। बाद में कुछ और लिखूँगा।

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  4. aisa laga jaise abh abh theatre me se pankaj wali life in a metro movie dekh kr bahar nikle hai .......very very good....:-)

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