भारतीय सेंसरशिप का दायरा बढ़ाती इश्क़िया
चंद दिनों पहले ही विशाल भारद्वाज प्रोडक्शन की इश्क़िया देखने का मौका मिला। मौका हालाँकि मिला नहीं ख़ुद बनाना पड़ा। क्योंकि जब से इस फ़िल्म की चर्चा शुरू हुई तभी से इसे देखने की इच्छा के बीज तो मन में अंकुरित होने लगे थे। हाल ही की अपनी भोपाल यात्रा पर आख़िरकार यह फ़िल्म देख ही डाली। जो चर्चा इस फ़िल्म को लेकर शुरू हुई वो इसकी देसी बोली, खाटी संवाद, बोल्ड दृश्यों, पटकथा और ख़ासकर इस पूरी फ़िल्म की सेंसरशिप को लेकर थी। और फ़िल्म देखने के बाद यही कहूँगा कि ये चर्चाएँ काफ़ी हद तक वाजिब भी थीं। इस तरह की फ़िल्में भारतीय परिदृश्य में वाकई चर्चा का विषय ही बनेंगी।
फ़िल्म की सबसे बड़ी बात इसके संवाद और इसे बनाए जाने का तरीका रहा है। ठेठ देसी शब्दों और गालियों से भरे सीधे और स्पष्ट संवादों के बावजूद इसे भारतीय सेंसर ने पास कर दिया। हालाँकि इसे ‘ए’ सर्टिफ़िकेट दिया गया, लेकिन निर्देशक अभिषेक चौबे उसमें भी ख़ुश थे। ख़ुशी इस बात को लेकर कि सेंसर द्वारा उनसे जवाब तलब नहीं किया गया और उन्हें उनके फ़ाइनल प्रोडक्ट से छेड़छाड़ कर उसमें आमूलचूल परिवर्तन करने को नहीं कहा गया। वैसे भी अभिषेक तो पहले ही कह चुके थे कि उन्होंने ये फ़िल्म बच्चों के लिए नहीं बनाई है।
यहाँ आकर इस प्रकार की बातों ने मन को उद्वेलित भी किया और आनंदित भी। उद्वेलित इसलिए कि क्या मेनस्ट्रीम बॉलीवुड और भारतीय दर्शक ख़ासतौर पर अब इस सबके लिए तैयार हैं! और आनंदित इसलिए क्योंकि अब ऐसा लगने लगा है कि भारतीयता की सेंसरशिप का दायरा बढ़ रहा है। अब विवाद कुछ कम होते जा रहे हैं। वैसे, जब से इस फ़िल्म की सेंसरशिप पर बहस चल रही थी तभी से भारतीय परंपरा, संस्कृति और उसके अनुसार हमारे आम जीवन में होने वाली सेंसरशिप की यादें ताज़ा होने लगी थीं। जैसे घर में मनपसंद कपड़े पहनने पर सेंसरशिप, शॉपिंग के दौरान मनपसंद गैजेट ख़रीदने पर सेंसरशिप, खाने-पीने की चीज़ों में सेंसरशिप, स्कूल में मस्ती करने पर सेंसरशिप। टीचर, माता-पिता, बड़े भाई-बहन, रौबदार दोस्त, पत्नी, या प्रेमिका की थोपी हुई सेंसरशिप! अपने परिवेश में तो इस तरह की चीज़ों का अनुभव यकीनन सभी ने किया होगा??? और उन्हीं अनुभवों की बदौलत ये पोस्ट निकली है।
मुझे याद आता है, जब स्कूल में वार्षिकोत्सव हुआ करते थे। तब हमारी कोशिश रहती थी कि उस समय के चर्चित गानों पर हम क्लास के लड़के-लड़कियाँ मिलकर गज़ब का डांस तैयार करें। लेकिन फ़िर ऐन मौकों पर हमारे डांस में से लड़कियों को सेंसर कर दिया जाता था। और हम इस बात के लिए लड़ा करते थे। उस समय तर्क होता था कि लड़के-लड़कियाँ साथ में इस तरह नहीं नाच सकते। ख़ैर फिर भी हमें एक दो बार तो ये मौका नसीब हो ही गया था। इस वाकये को याद करने का कारण यही था कि यह देखा जाए कि हम किस हद तक अपनी बातों में, कामों में, या अपनी इच्छाओं में अपने परिवेश और संस्कृति के हिसाब से काँट-छाँट करते आ रहे हैं। और अब इनके बावजूद इश्क़िया जैसी फ़िल्म को बड़े परदे पर उसके मूल स्वरूप में देखना एक अलहदा अनुभव है।
बात यही है कि हम खुल रहे हैं और प्रैक्टिकली एडजस्ट होते जा रहे हैं। और कला के माध्यम से हम अपनी सोच के दायरे को बढ़ाने में सफल हो रहे हैं। इसका ये मतलब कतई मत निकालिए कि हमें अपने मूल्यों और संस्कृति और उस परिवेश से प्यार नहीं है, जहाँ इस तरह की बातें और फ़िल्में वर्जित श्रेणी में आती हैं। अलबत्ता अब हम उन चीज़ों से मुँह नहीं चुरा रहे हैं। विशेष तौर पर कला के संबंध में।
विशाल भारद्वाज मक़बूल, ओंकारा, और कमीने से अपनी फ़िल्म फ़ैक्टरी से बिलकुल अलग प्रोडक्ट निकालने का ट्रेंड शुरू कर चुके हैं। इश्क़िया ने इस सूची को और आगे बढ़ाने का काम बख़ूबी किया है। बिना किसी बड़ी स्टारकास्ट के बावजूद भी विशाल ने अभिषेक जैसे अपने सहयोगी के हाथ इस फ़िल्म के निर्देशन की बागडोर देकर यही जताया है कि आज भी सिर्फ़ नाम नहीं बल्कि काम बिकता है। युवा निर्देशक अभिषेक ने भी बड़े खुले दिल से इस फ़िल्म को बनाया है, जिसके लिए उन्हें तारीफ़े मिलनी ही चाहिए। हालाँकि दो घंटे की इश्क़िया में बहुत कुछ है, पर जो बात मुझे हमेशा याद रहेगी वो यही है कि “इश्क़ में सब बेवजह होता है”। और इसी संवाद से पूरी फ़िल्म की कहानी और इसमें बुने पात्रों के व्यवहार की असली वजह का ख़ुलासा होता है।
ख़ैर उम्मीद तो यही है कि अब स्कूलों में लड़के-लड़कियों को एक साथ नाचने के लिए सोचना नहीं पड़ता होगा!!! और अब हम सेंसरशिप को केवल कैंची चलाने की विधा के रूप में नहीं जानेंगे। बल्कि उसका उद्देश्य यही होगा कि नैतिक रूप से अनुचित बातों पर उंगली उठाना, और जिस कथा को हम आइने की तरह समाज के सामने ला सकते हैं उसे बिना रोक-टोक के आगे आने देना।
jitna accha ye artical ha utna he accha tarika kehney ka laga...Anshu
ReplyDeleteAchha likha hai.. dost pryas karte raho...
ReplyDeletebadhaiyan..
kya likhte ho panku............. proud of u.....neha
ReplyDeletekhup bhaloo...!
ReplyDeletegood boss what an command over language ab to ishquiya dekhni padegi
ReplyDeleteyar abhi to tumhe gudiya ke liye samjhne main main thoda aur waqt chahiye tha aur tumne naya rup dikhya apna , tum critic kab se ban gaye . but dear tell u truely dear that u r a mindblowing and upcoming star in this field . bahot hi satik shabdo ko piro kar tumne isko pesh kish beautiful..............
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