Tuesday, April 3, 2007

''आरक्षण के खेल पर...सम‍ीक्षा के बादल''

नमस्कार सभी भारतीयों को, आप सभी का स्वागत है कलयुग की राजनीति में छिड़ चुके न्यायालय और विधायिका के बीच होने वाले वैचारिक द्वंद्व में, जिसमें दाँव पर लगा है अन्य पिछड़े वर्ग का उच्च शिक्षा में 27 प्रतिशत आरक्षण। दोनों ही पक्ष जी-जान से आरक्षण से मिलने वाले ईनाम के पीछे लगे हैं। राजनीति यह मुकाबला जीतकर वोटों की तालियाँ बटोरना चाहती है, वहीं न्यायालय संविधान का रक्षक होने का दायित्व पूर्णत: निभाना चाहता है। और इस द्वंद्व के रैफ़री हैं वे हज़ारों छात्र जो इस वार्षिक सत्र से आईआईएम और आईआईटी में अपनी उच्च शिक्षा का सपना पूरा करना चाह रहे हैं। खींचतान शुरु हो चुकी है और मुक़ाबला रोचक होने के पूरे आसार हैं। देखना है कौनसा पहलवान अपने तर्कों की बदौलत किसे पटखनी देता है, और रैफ़री के रूप में लाचार बने छात्र (जो केवल विरोध या समर्थन का शांतिपूर्ण प्रदर्शन भर कर सकते हैं) कब तक इस द्वंद्व के मैदान के धूल-धुएँ में इन दोनों पक्षों को दिखाई नहीं देते।
राजनीति के खिलाड़ियों की अच्छी शुरुआत हुई और उन्होंने तुरत-फ़ुरत संविधान में संशोधन करके आरक्षण विधेयक लागू करके इस फ़िक्ड मैच का टॉस जीत भी लिया था, किंतु मैच शुरु होने के पहले ही न्यायालय के आकाश से समीक्षाओं की बरसात हो गई और सब किए धरे पर पानी फिर गया। अब राजनीतिक गलियारों में हर दल बस इन समीक्षाओं के बादल छँटने की राह तक रहा है ताकि आरक्षण का रोमांचक खेल फिर से प्रारंभ हो सके। पंजाब आम चुनावों में ज़ोर का झटका धीरे से खा चुकी काँग्रेस के लिए अब उ.प्र चुनावों के ऐन पहले अपनी केंद्रीय सरकार की साख बचाने की नौबत आ गई है। न्यायालय को संविधान और क़ानूनों की समीक्षा का अधिकार है और यही अधिकार अब सरकार को कटखरे में खड़ा कर चुका है।
सात आठ दशक पहले के दो रु. किलो के अनाज और आज के 20 रु. किलो के अनाज को देखकर यह कहना तो सही है कि मँहगाई बढ़ गई है, ‍लेकिन इसी नीति पर चलते हुए यह कहना कि 1931 के आँकड़ों से अनुमान लगाकर आरक्षण भी लागू किया जा सकता है, इस पर न्यायालय की समीक्षा का प्रश्न चिह्न लग गया है? अब सरकार यदि बाध्य होकर पुन: ताज़ा आँकड़े इकट्ठा करे, तो हो सकता है कि एक अविश्वसनीय रिपोर्ट सामने आ जाए और कोई उच्च जाति ही आरक्षित वर्ग की पात्रता पर खरी उतर जाए। डेढ़ दशक पहले जब सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण लागू हुआ था, उसके बाद से हर क्षेत्र में आरक्षण का महत्व बढ़ता ही गया है। पिछले 1-2 साल से तो अधिकांश लोग और समुदाय स्वयं को पिछड़ा साबित करने पर तुल गए हैं, और 8 प्रतिशत की विकास दर का दिव्य स्वप्न भी सरकार की प्राथमिकताओं में आरक्षण माँग रहा है। सरकार का तर्क है कि अन्य पिछड़ा वर्ग आर्थिक दृष्टि से भी बहुत पीछे है और उनके उत्थान हेतु उन्हें उच्च शिक्षा में आरक्षण दिया जाना चाहिए किंतु वर्तमान तथ्य ये हैं कि इस वर्ग के सबसे अधिक लोग दक्षिण राज्यों में किंतु भारत का ग़रीब तबका उत्तर-पूर्वी राज्यों में भरा है। और इस बात की गारंटी कौन लेगा कि केवल पिछड़ा वर्ग ही अपने बच्चों को उच्च शिक्षा में असमर्थ है, आज भी कई ऐसे कुलीन लोग हैं जो कंधों पर झोला और पैरों में चप्पल पहने दो जून की रोटी के लिए पसीना बहाते हैं, क्या उनको आरक्षण नहीं मिलना चाहिए।
भाई आरक्षण शब्द इतना ही प्यारा है तो उसे लागू करें लेकिन उसका आधार जाति को तो न बनाएँ। संविधान निर्माण के समय एक पवित्र मंशा के चलते आरक्षण की बात रखी गई थी, जो कालांतर में नेतागिरी की कुर्सी का एक अभिन्न पाया बन गई है। वैसे आरक्षण के लिए सरकार की फूर्ति भी शाबासी देने लायक है, यदि इतनी ही तत्परता भारत के सुरक्षा कार्यों में, भूखों को खाना खिलाने में, बच्चों को प्राथमिक शिक्षा देने में (उच्च शिक्षा तो हिमालय की चोटी है), किसानों की आत्महत्याएँ, और भ्रूण हत्याएँ रोकने में दिखाई जाती तो निश्चित ही हर वर्ग को नहीं किंतु मानव जाति को तो कुछ लाभ ही मिलता।
सभी राजनीतिक दल आरक्षण नाम का एक ऐसा सुर पिछड़े वर्गों को दे रहे हैं जो बजता तो उस वर्ग के लोगों के घरों में है, लेकिन इससे सुकूँ तो नेताओं के कानों को ही मिलता है और हमारी क्षमावान जनता को लगता है कि उनके जीवन के सुर सध गए हैं।

2 comments:

  1. "देखना है कौनसा पहलवान अपने तर्कों की बदौलत किसे पटखनी देता है"

    तर्क? भारत में? राजनीति में?

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  2. नेताओं के सामने बीन बजाने से कुछ नहीं होता।

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