Wednesday, April 25, 2012

कह दिया तो बस.... कह दिया... वरना तो....


कह दिया तो बस कह दिया,
वरना कहने को बहुत कुछ है,
सुन लिया तो बस सुन लिया,
वरना सुनने को बहुत कुछ है,
देख लिया तो बस देख लिया,
वरना देखने को बहुत कुछ है,
जी लिया तो बस जी लिया,
वरना जीने को बहुत कुछ है,
जता दिया तो बस जता दिया,
वरना जताने को बहुत कुछ है,
समझ लिया तो बस समझ लिया,
वरना समझने को बहुत कुछ है,

इन सभी -
रिश्तों में, बातों में,
प्रेम में, यादों में,
जीवन में, सपनों में,
परायों में, अपनों में,
पेशे में, परिवार में,
आलौकिक संसार में,
दोस्ती में, समाज में,
........................
कल में और आज में,
अनंत में,
समझ लिया तो बस...
:)


~ पंकज

Sunday, January 29, 2012

अपना भी नाम कर लेते!


मेरी कलम की स्याही के हालिया दाग़ जो काग़ज़ पर उतर आए। आपकी नज़र पेश हैं -


उस मोड़ पर नज़रों से दुआ-सलाम कर लेते,
हम भी हँसकर तुम्हारा एहतराम कर देते।
तुम्हे शकोशुबह है फ़कत एक लफ़्ज़ दोस्ती पर,
हमसे कहते हम दास्तानें बयान कर देते।

एहसासों के दंगे हैं गर तेरी परेशानी का सबब,
तो प्यार को तलवार, नफ़रत को मयान कर देते।

अकेले में नज़रों से तीर चलाना तुमने सिखाया,
वरना तो हम इज़हार-ए-इश्क़ सरेआम कर देते,

तेरी ख़ामोशी जो होती मेरी हँसी की कीमत,
हम अपनी दुआओं को भी बेज़ुबान कर देते,

एक कोर रोटी ही थी उस ग़रीब की ख़्वाहिश,
वो कहता तो क्रिसमस-दीवाली-रमज़ान कर देते,

मज़हब के बँटवारे में भी ऐसे बाँटते तिरंगा फिर,
कि नारंगी गीता सफ़ेद बाइबल, हरी कुरान कर देते,

हक़ से कोई तो पूछे बता रंज क्या है पंकज?
आपकी कसम हम शिकायतें तमाम कर देते,

उन जनाब के शौक ही चचा ग़ालिब थे वरना,
दो पंक्ति सुनाकर हम भी कुछ नाम कर लेते।

~ पंकज

Friday, January 20, 2012

--- उम्मीद की धूप ---


दिल्ली और दिसंबर एक बहुत ही अलहदा मेल होता है। वो भी उन लोगों के लिए जो दिल्ली नए-नए आते हैं। बीते साल में दिल्ली की ठंड देख चुका हूँ, और इस साल उसकी कमी महसूस होती रही। क्योंकि इस सर्दी में दोस्तों का निरंतर साथ, कॉलेज के ठियों की चाय (और चार की छिनाछपटी), मंडी हाउस पर नून वॉक, मफ़लरों और ऊनी दस्तानों के फ़ेरबदल, क्रिसमस की लाल टोपियाँ, अल सुबह कॉलेज के कामों से निकलना और रातों रात तक शूट या एडिट करते रहने की बस यादें ही साथ थीं। इस बार फिर भी दिसंबर में दो-तीन दिन दिखे ठंड के जलवों में मोबाइल में यह एक ड्राफ़्ट बना लिया था।

जनवरी की लोहड़ी के आस-पास जाते-जाते ठंड के जलवों ने इस ड्राफ़्ट की याद दिला दी। अंत में यह रूप निकल कर आया है। थोड़ी उम्मीद की धूप आप भी ख़रीद ही लें केवल अगर इसे महसूस सकें तो!


 --- उम्मीद की धूप ---

नींद से जागा हूँ अभी!
दिल्ली में सर्दी बहुत है,
क्यों कुछ साफ़ दिखता नहीं,
आँखें ही बंद हैं या ये धुंध है कोहरे की,
चलो निकल चलें बाहर
जाकर किसी परचून वाले से ज़रा,
सौ ग्राम धूप ही ख़रीद लें
कि अपने पास
रिश्तों की गर्माहट नहीं
न ही है पैसों की गर्मी,
ठंडे हैं हौंसले भी,
और खून में उबाल नहीं,
शायद वो धूप ही पिघला सके,
शरीर से मन में बस चुकी जड़ता को,

बहुत से परचून वाले बेचते हैं
खुली धूप उम्मीद की-
कहते हैं -कड़क है, गर्म है, तेज़ है
धूप हमारे यहाँ की,
मिलावटी नहीं है बाज़ार की तरह,
इंसान की तरह,
मौसम की तरह,
इसलिए ही वो भाव नहीं करते,
और बेचते हैं अपनी धूप मनमाने भाव पर,
आख़िर सर्दी की धूप है!


जब सूरज नहीं निकलता,
तब-
तो ठिठुरते अरमानों को,
सीले हुए सामानों को,
गालों पे चिपके नमकीन पानी को,
सिकुड़ी हुई अपनी पेशानी को,
कलम की सूखी स्याही को,
अंधेरे में भटके राही को,
अलाव देती है,
यही उम्मीद की धूप,
कि सूरज कल तो निकलेगा ही,

तब तक,
कुछ धूप ख़रीद कर ही काम चला लें!
क्योंकि,
सर्दी की धूप जैसे एक उम्मीद ही तो है,
कि मौसम बस सुहाना होने को है!

~ पंकज ~

चित्र: साभार गूगलदेव

Thursday, October 6, 2011

अहम् रावण अस्मि!


विजयादशमी पर्व की ढेरों शुभकामनाएँ आप सभी को इस रचना के साथ!

आती सर्दियों से रिसती धूप में,
ईमान जैसी सूखी घास,
अपनेपन के चमकीले दिखावटी कपड़े,
कई छुपे चेहरों के साथ,
कलयुगी रावण के रूप में,
हर वर्ष नए अस्तित्व में गढ़ा,
फिर से हुआ एक ढाँचा खड़ा,

सोचता हूँ काश,
मैं भी रावण ही होता,

सब पर राज करने की,
मैं महत्वकांक्षा रखता,
चाहता माँस, मदिरा, माया,
के भोग की विलासिता,
पर नार के लालस में,
कामनाओं के वश में,
लाँघ भी देता समुद्र की सीमा,
दमन करता, जीतता दुर्बल को,
अनुकूल करता हर प्रतिकूल को,
भाई कहकर लूटता धनकुबेर को,
मित्र अपना कहता बस दिलेर को,
और फिर
नाश करता सर्वसामान्य के मूल को,

इसमें क्यों लजाऊँ मैं,
बोलो ना?
क्यों
इस कलयुग की भीड़ में,
दुर्भावना, बेमानी से झुकी
खोखली होती रीढ़ में,
दमन की राजनीति में,
अन्याय की आपबीति में,
फ़र्स्ट आने की रेस में,
या घर-गहस्थी के क्लेश में,

तुम सब भी तो यही चाहते हो,
महत्वकांक्षा, माया, भोग विलासिता,
शक्ति, सत्ता, सम्मान, चाटुकारिता!
इसलिए सोचता हूँ कि आज,
मैं भी रावण बन जाउँ,
सबसे ऊँचा खड़ा होकर,
मेरी मृत्यु का उल्लास मनाने आए,
लोगों को निहारूँ,
और जब सत्य की चिंगारी,
भस्म कर दे मुझे पूर्णरूप में,
तब अट्टाहस भरूँ,
अपने राख होने पर,
क्योंकि तुम तालियाँ पीटते,
शंखनाद और ईश्वरी नारों के बीच,
अपने-अपने रावण को लेकर,
घर लौट जाओगे!

~ पंकज

Tuesday, September 13, 2011

वो तो बस इतना ही चाहती है कि...


कितने ही संवाद होते हैं, जो कभी बिना कहे ही व्यक्त हो जाते हैं। दूसरी ओर कितने ही अरमान होते हैं, हसरतें होती हैं जिन्हें अभिव्यक्ति की जुँबा तक आने का समय ही नहीं मिल पाता। या यह भी माना जा सकता है कि अभिव्यक्ति के छोर तक आते-आते वो हसरतें इतनी बुलंद हो जाती है कभी-कभी कि फिर वो शब्दों की मोहताज नहीं रहती।

मैं यह तो नहीं कह सकता कि यह हर लड़की कि कहानी होगी। लेकिन फिर भी शायद आप इसमें अपनी हसरतों का प्रतिबिंब महसूस कर पाएँ!
क्योंकि जब उस लड़की की सोच की बात आई तो यही कुछ पंक्तियाँ निकल कर उभर आईं। अब लड़कियाँ ही बताएँ कि इंसाफ़ है या बस कोरे जज़्बात हैं!


बस इतना ही चाहती हूँ -



हाँ!
मैं प्रेम करती हूँ,
स्वीकाती हूँ तुम्हारी मौजूदगी,
अपने अंदर के वीराँ में,
बस जताती नहीं कभी!


चाहती हूँ मैं इतना कि,


दर्श हो जब तुम्हारा,
दौड़ी आऊँ, गले लग जाऊँ,
जैसे अल्हड़ नदी आवेग में,
लिपटती है ‍चट्टान से,




अनजाने ही,
तुम्हारे हाथों के बीच,
अपनी उंगली सरका दूँ,
उसे तुम्हारी गर्माहट का
जैसे लिहाफ़ ओढ़ा दूँ,


तुम्हारे नज़दीक आते ही,
टिक जाऊँ तुम्हारे कांधे पर,
ये मानकर कि मेरे अस्तित्व की,
तुम ही नींव रहो उम्रभर,


कुछ आगे बढ़कर मैं ही,
चूम लूँ तुम्हारा माथा ऐसे,
कि तुम हो सावन की बूँद,
और मैं बंजर ज़मीन जैसे,


अपनी गोद के तकिये पर,
तुम्हारे बालों में हिरन की तरह,
विचरने दूँ अपनी उंगलियों को,
और तुम्हारे चेहरे पर,
बिछा दूँ अपनी जुल्फ़ों की छत,
कि कोई और फिर कभी,
भीगो न सके तुम्हारी आँखों को,


यह सब मैं,
लेकिन कभी तुम्हें जता कर,
तुम्हें यूँ जीत नहीं सकी!
क्योंकि मैं तुम्हें कभी,
हराना नहीं चाहती,


बस-
चाहती हूँ मैं इतना कि,
हार जाऊँ हमेशा की तरह,
तुम्हारी एक नज़र में ही,
और निढाल होकर बिखर जाऊँ,
कतरा-कतरा तुम्हारे रोम-रोम में!
बस इतना ही चाहती हूँ मैं।
बस इतना ही...


~ पंकज

चित्र: गूगल छवियाँ

Tuesday, August 2, 2011

शब्दों की आवाज़...


चलते-चलते शब्दों का कारवाँ कहाँ से कहाँ ले जाकर छोड़ देता है। एक ख़्याल से शुरू हुई रचना पता नहीं विचारों की दुनिया के किस छोर पर आकर ख़त्म हो कोई नहीं जानता। दिल्ली से बाहर निकलने की बैचेनी इस कदर हुई है कि मेट्रो में एक मित्र से बात करते-करते दिल्ली लगातार बहुत समय तक रहने की बात "घुटन" शब्द तक पहुँच गई। बीते हफ़्ते दीदी ने मुझसे मेरे पास मेरी बाइन ना होने पर आश्यर्च जाताया और सीधे पुछ डाला कि बिना बाइक के ज़िंदा कैसे है तू! जवाब में बस मुस्कुरा दिया। कल दिल्ली से एक हफ़्‍ते के लिए बाहर जा रहे हैं कुछ काम के लिए, पर जाने से पहले कुछ न कुछ लिखना चाहता था। कल रात बैठकर विचारों के घोड़े दौड़ाए तो इधर-उधर दौड़ने के बाद इन शब्दों की नकेल में बंध गए। हर शेर का अपने कई संदर्भ हैं ‍नीचे की कविता में। आप अपने हिसाब से अपनी ज़िंदगी से जुड़े अर्थ निकालने को स्वतंत्र हैं। बताइएगा ज़रूर कैसी लगी!

आवाज़... 

बेरहम घुटन को मेरी अब साँस दो,
दबे लफ़्ज़ों को मेरे तुम आवाज़ दो,
इश्क़ के नाम से न बांधों पंछी को,
जिसे उड़ना पसंद है उसे परवाज़ दो,

तुम्हारी शिकायतों पर हो मेरी ख़ामोशी,
मुझे तुम सज़ा देकर ख़ुद को इंसाफ़ दो,

नया शहर नए रिश्ते एहसास तो पुराने हैं,
भीड़ में अकेला क्यूँ हूँ कोई तो जवाब दो,

हसरतों की ज़मीन मेरी हुई अब बंजर,
रहने को मुझे हौंसलों भरा आकाश दो,

ख़ौफ़ज़दा कर रहा ये आने वाला कल,
मुस्कुराती यादों का वो मेरा इतिहास दो,

(मन की बैचेनी, टीस और शिकायतों के साथ मुल्क की नज़र कुछ शेर )

धमाके ये क्या ख़ाक बाँटेंगे मेरे घर को,
दो रहीम को शबद, राम को नमाज़ दो,

सबको बुलाकर यूँ लगाओ न बस मेले,
मंद पड़ी इस क्रांति को अब आग़ाज़ दो,

दहशत नहीं मुस्कान हक़ है बचपन का,
गुलों के हाथ गोली नहीं एक किताब दो,

~ पंकज

Monday, June 27, 2011

दो कोरे क़ाग़ज़ का एक तोहफ़ा...



इस बार की कविता मैंने अपनी भावनाओं से नहीं बल्कि किसी और की भावनाओं को लेकर लिखी है। यह सोचना बहुत आसान होता है कभी-कभी कि सामने वाला क्या सोच सकता है, लेकिन अगर आप उसी के जैसे बनकर सोचने लगें और वह भी शब्दों में बांधने के लिए तो बात कुछ और हो जाती है।
स्कूल के समय में भी एक दोस्त ने मुझे एक लड़की की भावनाओं पर कुछ लिखने के लिए कहा था। उस समय भी "काश तुम समझ पाते" लिखी ज़रूर थी पर इतनी गहराई से सोचा नहीं था। इस ‍कविता को लिखते समय शब्दों का अपना अलग ही बोझ था।
यह कविता मैंने लिखी ज़रूर है लेकिन किसी और की सोच के साथ। डर केवल इतना है कि पता नहीं उन भावनाओं के साथ मेरे शब्द और सोच न्याय कर पाए हैं या नहीं।
अगर यह न्याय है भी तो फिर डर इस बात का है कि कहीं यह कविता शब्दों के लिए किसी और पर आश्रित होने का सबब न बन जाए। उम्मीद है आपको ....... लगेगी। अच्छी या बुरी के लिए Feel in the Blanks and then Fill in the Blanks :)



तोहफ़ा तुम्हारा...

क्या तोहफ़ा दूँ तुम्हें,
जब ख़ुद को दे चुकी हूँ,
पर तुम्हारी क़ीमत मैंने,
ख़ुद से ज़्यादा आँकी है,
मैं जानती हूँ तुम्हारी हर पसंद,
फिर इतना मुश्किल क्यों है,
तुम्हारे लिए एक तोहफ़ा भर चुनना,

मैंने -
तुम्हें शब्दों से खेलते देखा है,
पर तुम्हारे शब्दकोश के लिए
कुछ शब्दों की गठरी बनाकर,
कैसे दे देती तुम्हें,
जब मैं ही निशब्द हूँ तुम्हारे आगे,

मैंने-
सोचा कि माथा चूमकर तुम्हें,
कहूँ "आई एम सॉरी",
तुम्हारे लिए कुछ न कर सकी मैं,
पर पता है मुझे,
तुम बेबाक हँसी के साथ कहते,
यही काफ़ी है कि,
मैंने तुमसे प्यार किया है,

मैंने-
अपने ईश्वर से आशीष भी माँगा,
कि पहुँचा दूँगी तुम तक,
यूँ कि तुम कहाँ उसके दर जाते हो,
तुम्हारे पास तो ‍लेकिन,
माँ का प्यार,
दोस्तों की नसीहतें,
अपनों की शुभकामनाएँ,
बड़ों का आशीष,
सब पहँच चुका होगा अब तक,

मैंने-
समय की कलम थामकर,
यादों का ढक्कन खोला,
लिखने बैठी चंद लफ़्ज,
पर मैं ही पगली थी,
क्योंकि उसमें भरी हुई थी,
मेरे आँसूओं की बेरंग स्याही,
जो क़ाग़ज़ काला न कर सकी,
बस भिगोती चली गई,
क़ाग़ज़ को और मुझे,

इसलिए हारकर,
तुम्हें दो कोरे काग़ज़ दे रही हूँ,

अपने हाथों का स्पर्श देकर,
एक क़ाग़ज़ मुझे लौटा देना,
और बचा एक कोरा क़ाग़ज़,
रख लेना तुम,
क्योंकि,
फिर से हँसना, रोना, बोलना,
उड़ना और स्वछंद जीना,
तुम सीखा चुके हो मुझे,
इसलिए मैं तोहफ़ें में तुम्हें,
बस एक कोरा क़ाग़ज़ नहीं,
अपनी बची-कुची ख़ामोशी दे रही हूँ,
जो तोड़ चुके हो तुम!

~ पंकज