Monday, January 25, 2010

अतीत के पन्नों से... एक बार फिर


पिछले आठ-नौ महीनों की तड़प आख़िरकार कल रात 3 बजे ख़त्म हुई। नौ महीने के बाद जैसे प्रसव में एक नवजात बाहर आता है ठीक उसी तरह कुछ नया, मेरे भीत‍र से, मेरे विचारों के रूप में मेरी उंगलियों से होते हुए अंतत: शब्दों में ढल ही गया। इसमें इतना समय क्यों लगा कुछ कह नहीं सकता। लेकिन हाँ कल दिनभर के खालीपन, एक प्यारी सी दोस्त से ढेर सारी बातें, आँखों से आँसूओं का बोझ कम होने, एक मग गर्म कॉफ़ी का और हाँ, कैलाश खेर के मेरे सारे पसंदीदा तरानों का योगदान रहा, जो दिमाग़ी गम्मत को शब्दों की बंदी बना पाया!

जहाँ लिखने की बात आती है, तो हर बार ख़ुद से एक वादा होता है कि इस बार शुरु करने पर रूकना नहीं है। कभी समय का बहाना, तो कभी विचारों की कमी का, तो कभी ख़ुद से लड़ने की मंशा की चलते लिखने का मन नहीं होता। लेकिन इस बार कुछ ज़्यादा हो गया। इस बीते समय के कितने की लम्हे आए जब मैं मन के द्वंद्व को शब्दों में लपेटकर एक अच्छी या बुरी याद के रूप में सज़ा सकता था। कई महीनों बाद फिर से जूनून सवार हुआ तो एक ही बार में 32 किलोमीटर साइकिल चला ली, अभिनय के संसार को तलाशा या कहूँ ख़ुद को, अपनी प्यारी सी भतीजी के बहाने बीते बचपन मे गलियारे में होकर आया, दूरदर्शन पर खेती बाड़ी की बातें भी कर लीं और हिप-हॉप हैंपनिंग काम भी किए, कितनी बातें थीं करने के लिए, पर ग़लती तो हो गई। दुनिया जहान की गम्मत में हिस्सा लेते-लेते ख़ुद की गम्मत के इस कोने से ज़रा, नहीं ज़रा नहीं बहुत दूरी हो गई थी। दोस्तों से बातों-बातों में कई बार कहा कि फिर से कीबोर्ड घिसने की इच्छा हो रही है, उन्होंने स्वागत भी किया हौंसला दिया। फिर ये सब बातें रात के जूनून में तो सर पा छाई रहीं और सुबह इतनी रौशनी होने के बाद भी कहीं गायब हो गईं जिन्हें खोजने की कोशिश भी नहीं की।

ख़ैर इस बार कोई वादा तो नहीं है करने के लिए लेकिन बने रहने की कोशिश भर तो रहेगी ही। फिलहाल गम्मत पर ये रचना, आप सबके लिए और आपकी टिप्पणियाँ मेरे लिए...
गम्मत पर मिलते रहेंगे...


अतीत का आईना...

देखकर आईने में एक शख़्स नज़र आता है,
मैं तो खड़ा रहता हूँ और वो मुस्क‍ुराता है,


हमने तो दिल का हाल कभी कहा नहीं उसे,
आँखों से कैसे भला कोई मन पढ़ पाता है।


यूँ तो बंद आँखों में हमेशा एक ख़्वाब पलता है,
बस आँखें खुलती हैं और वो अधूरा रह जाता है।


अरसा हुआ उनसे मिलने की तमन्ना सी है,
वो नहीं बस उनका ख़्याल आकर सताता है।


कहाँ तो तक़रार उस रिश्ते की पहचान थी,
आज देखो वही शख़्स मेरा ख़ास कहलाता है।


कमबख़्त दोस्त ख़ुशी का ठिकाना कहते हैं मुझे,
फिर क्यों कहीं आँसू झलकने पे मेरा नाम आता है।


फ़िक्र, द्वेष, घृणा, छल तो आज हर चेहरे पर है,
वो नन्हा चेहरा आख़िर मासूमियत कहाँ से लाता है,


बचपन में बारिश हमें भिगोया करती थी कभी,
अब आँखों बहती है और मन भीग जाता है।


आज भी जब मिलता है अतीत मेरा,
तो बस एक बात पूछता है -
दो पल ही सही पंकज, क्या तू फिर से मुझे जीना चाहता है!


पंकज ~


(यह पोस्ट लगभग महीने भर पुरानी है जिसे इस ब्लॉग पर अब डाल रहा हूँ। पहले यहाँ पोस्ट की थी।)

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