Tuesday, January 26, 2010

जीवन, अभिनय, और बड़ा होना एक SONGहँस है।


अगर मैं इसे सीधे और स्पष्ट शब्दों में इस प्रकार लिखूँ कि जीवन, अभिनय, और बड़ा होना एक संघर्ष है तो आपको समझने में ज़रा भी परेशानी नहीं होगी और आप इससे सहमति भी जता देंगे। तो फिर ये SONGहँस और संघर्ष का क्या तालमेल??? वाकई अजीब कहानी है!!! इसलिए तो बैठ गया इसको शब्दों में पिरोने के लिए। कई लोगों से सुना है कि क्रिएटिविटी यानि कल्पनाशीलता कहीं से सीखी नहीं जा सकती वो तो विचार स्वरूप आपके अंदर बसती है और समय-समय पर ऊछलकर आपके सामने कूद पड़ती है। मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ जिसने कल्पनाशीलता के असीमित होने का अहसास करा दिया। 24 जनवरी 2010 का दिन जब इंदौर की यूथ होस्टल यूनिट के साथ बड़वाह के पास च्यवनऋषि और मोदरी माता के आश्रम ट्रैकिंग पर जाने का कार्यक्रम बना।

कई दिनों बाद जंगल में भटकने का मौका मिला तो उसे छोड़ने का मन नहीं किया। रविवार के दिन अलसुबह तैयार होकर लगभग 80 लोगों के साथ एक बस में सवार होकर इस दिन को प्रकृति की शांति और सौंदर्य के बीच बिताने के लिए निकल लिया। लेकिन ये नहीं पता था कि इस यात्रा पर प्रकृति, सौंदर्य, शांति, पहाड़ों के अलावा कोई और बात होगी जो जिंदगी भर हमेशा याद बनकर रहेगी। यहाँ उन्हीं यादों को बाँट रहा हूँ।

इन 80 लोगों के झुण्ड में 4 लोग बिलकुल एकतरफ़ा हो गए थे। या फिर ये कहूँ कि खो गए थे अपने आप में और रास्ते का समय काटने के लिए खेले जाने वाले उनके अनोखे खेल में। बस में एक तरफ़ अं‍ताक्षरी शुरु हो चुकी थी। कुछ देर हम भी खेले और फिर बाद में सोचा कि बचा-कुचा समय काटने के लिए हम वो बचपन वाला खेल खेलते हैं जिसमें मूक अभिनय के माध्यम से अपनी टीम के व्यक्ति को एक फ़िल्म का नाम बताना होता है। Dumb Sheraz  कहते हैं इस खेल को।

शुरू में तो बस मस्ती करने के लिए इसे खेलना शुरू किया, लेकिन बाद में यही खेल दिन को यादगार बनाने का कारण बन गया। मैं इसकी मात्र दो उदाहरण बताता हूँ जो ये बताने के लिए काफ़ी हैं कि कल्पना की कोई सीमा नहीं हो सकती कोई बंधन नहीं हो सकता

  • यदि आपको कहा जाए कि अक्षय कुमार की फ़िल्म संघर्ष को मूक अभिनय करके दर्शाइए तो आप क्या करेंगे??? कल हमने क्या किया ये सुनिए! ये नाम हमने अपने विरोधियों को दिया था। तो उनमें से अभिनय करने वाली दोस्त ने सबसे पहले तो गाना गाने के हाव भाव बनाए और फिर अचानक हँसने लगी। बाद में गाना बन गया “Song और फिर हँसने से हँस को अलग किया गया। अब इन दोनों को मिलाकर बना “Songहँस। अब आया असली ट्विस्ट जिस प्रकार मरा-मरा के लगातार उच्चारण से रामनिकलता है, वैसे ही Songहँस को निरंतर अलग-अलग तरह से हिंदी, अंग्रेज़ी, पंजाबी, बांग्ला में बोलते रहने पर निकला संघर्ष और उन्हें उत्तर मिल गया।
  • अब हमें फ़िल्म ब्लफ़मास्टर का नाम बताना था कैसे किया जाए??? तो सबसे पहले बल्ब सुझाया फिर उसे इंदौरी स्टाईल में बलफ़ किया। मैं से मा निकाला। सिर से , टांग से और रम से निकाला। और इन सबको जोड़कर बन गया बलफ़मासटर फिर इसे अंग्रेज़ी लहजे में बुलवाने पर आया ब्लफ़मास्टर
  • अब वास्तव, वजूद, बेताब, मि. एंड मिसेज़ अय्यर, मिशन इंस्तांबुल, घातक, काबुल एक्सप्रेस, ग़ुलाम-ए-मुस्तफ़ा जैसे नामों के लिए क्या-क्या किया गया होगा ये आप ख़ुद कल्पना कीजिए!!!!


    ऐसे उत्तर मिलने के बाद ख़ुद की सोच और उसे क्रियान्वित यानि कि एक्ज़िक्यूट करने के पागलपन पर हँसी तो आनी ही थी। हँसी भी इतनी कि पेट की आँतें भी रहम माँगने लगें! अगर आपने भी इस दृश्य को मन ही मन देख लिया है तो आप भी हँस सकते हैं। ठीक वैसे जैसे कि ट्रैक पर गए बाकी साथी हमें देखकर मन ही मन हँस रहे थे और आनंदित भी हो रहे थे। वो भी इस खेल में शामिल तो होना चाहते थे पर चूँकि वो अब बच्चे नहीं थे बड़े हो गए थे, इसलिए इस खेल में शामिल नहीं हुए। वाकई बड़े होने पर इच्छाओं को मारना सीख जाते हैं हम।

    ख़ैर, कल दिनभर यही सिलसिला चलता रहा और शाम हो गई। इंदौर पहुँचते-पहुँचते भी ना जाने कितनी ही फ़िल्मों के नाम इसी तरह से समझने या समझाने की कोशिश करते रहे हम लोग। घर जाने तक का मन नहीं किया। ऐसा लगा कि बस ये सफ़र यूँ ही चलता रहे और हम यूँ ही अभिनय करते रहें कल्पना करते रहें।

    ये छोटा सा खेल तो कल एक बहाना बन गया था। बीच-बीच में ये विचार कई बार आता रहा कि यह खेल तो अभिनय और सृजनशीलता के नए मापदंड स्थापित करने का माध्यम सा बन गया है। अंदर से आवाज़ आने लगी कि किस शब्द को कितनी जल्दी और कितने बेहतर या अलग ढंग से समझाया जा सकता है। वाकई बचपन के खेल सिर्फ़ खेल नहीं होते हैं। वो बच्चों को बड़ा बनाने का काम करते हैं उन्हें कुछ, नहीं दरअसल बहुत कुछ सिखाते हैं। लेकिन दुखद ये है कि वही बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तो वही सारे खेल फिर से खेलना उन्हें बचकाना सा लगने लगता है!!! अजीब चक्र है इन खेलों का और बचपन का। है ना?

    इंदौर पहुँचते ही हमें ना चाहते हुए भी खेल रोकना पड़ा और हम चारों दोस्त खेल को वहीं छोड़कर घर को निकल लिए उससे मिली यादों के साथ। लेकिन सच ही है अगर आपमें बचपन ज़िंदा है तो खेल आपको कभी नहीं छोड़ता। इसका भी जवाब है। क्योंकि जैसे ही मैंने घर में पैर रखा, टीवी देख रहे मेरे बापू ने मुझसे यही पूछा “अरे! पंकज इस फ़िल्म का नाम क्या है? मैंने उन्हें फ़िल्म का नाम भागमभागबताया और हँसी रोकता हुआ अपने कमरे में चला गया। तब एक बात समझ आई कि चाहे हम कितने ही बड़े क्यों न हो जाएँ, जीवन में कितनी ही भागमभाग रहे, उसके बावजूद भी हमें अपने बचपन के पल जीने का Songहँस जारी रखना चाहिए, और ऐसे पल चुराने के लिए समय के साथ बलफ़मासटरी करते रहना चाहिए।

    तो जब भी मौका मिले खेलिएगा ज़रूर!!!


    सभी चित्र: गूगल से साभार

    Monday, January 25, 2010

    अतीत के पन्नों से... एक बार फिर


    पिछले आठ-नौ महीनों की तड़प आख़िरकार कल रात 3 बजे ख़त्म हुई। नौ महीने के बाद जैसे प्रसव में एक नवजात बाहर आता है ठीक उसी तरह कुछ नया, मेरे भीत‍र से, मेरे विचारों के रूप में मेरी उंगलियों से होते हुए अंतत: शब्दों में ढल ही गया। इसमें इतना समय क्यों लगा कुछ कह नहीं सकता। लेकिन हाँ कल दिनभर के खालीपन, एक प्यारी सी दोस्त से ढेर सारी बातें, आँखों से आँसूओं का बोझ कम होने, एक मग गर्म कॉफ़ी का और हाँ, कैलाश खेर के मेरे सारे पसंदीदा तरानों का योगदान रहा, जो दिमाग़ी गम्मत को शब्दों की बंदी बना पाया!

    जहाँ लिखने की बात आती है, तो हर बार ख़ुद से एक वादा होता है कि इस बार शुरु करने पर रूकना नहीं है। कभी समय का बहाना, तो कभी विचारों की कमी का, तो कभी ख़ुद से लड़ने की मंशा की चलते लिखने का मन नहीं होता। लेकिन इस बार कुछ ज़्यादा हो गया। इस बीते समय के कितने की लम्हे आए जब मैं मन के द्वंद्व को शब्दों में लपेटकर एक अच्छी या बुरी याद के रूप में सज़ा सकता था। कई महीनों बाद फिर से जूनून सवार हुआ तो एक ही बार में 32 किलोमीटर साइकिल चला ली, अभिनय के संसार को तलाशा या कहूँ ख़ुद को, अपनी प्यारी सी भतीजी के बहाने बीते बचपन मे गलियारे में होकर आया, दूरदर्शन पर खेती बाड़ी की बातें भी कर लीं और हिप-हॉप हैंपनिंग काम भी किए, कितनी बातें थीं करने के लिए, पर ग़लती तो हो गई। दुनिया जहान की गम्मत में हिस्सा लेते-लेते ख़ुद की गम्मत के इस कोने से ज़रा, नहीं ज़रा नहीं बहुत दूरी हो गई थी। दोस्तों से बातों-बातों में कई बार कहा कि फिर से कीबोर्ड घिसने की इच्छा हो रही है, उन्होंने स्वागत भी किया हौंसला दिया। फिर ये सब बातें रात के जूनून में तो सर पा छाई रहीं और सुबह इतनी रौशनी होने के बाद भी कहीं गायब हो गईं जिन्हें खोजने की कोशिश भी नहीं की।

    ख़ैर इस बार कोई वादा तो नहीं है करने के लिए लेकिन बने रहने की कोशिश भर तो रहेगी ही। फिलहाल गम्मत पर ये रचना, आप सबके लिए और आपकी टिप्पणियाँ मेरे लिए...
    गम्मत पर मिलते रहेंगे...


    अतीत का आईना...

    देखकर आईने में एक शख़्स नज़र आता है,
    मैं तो खड़ा रहता हूँ और वो मुस्क‍ुराता है,


    हमने तो दिल का हाल कभी कहा नहीं उसे,
    आँखों से कैसे भला कोई मन पढ़ पाता है।


    यूँ तो बंद आँखों में हमेशा एक ख़्वाब पलता है,
    बस आँखें खुलती हैं और वो अधूरा रह जाता है।


    अरसा हुआ उनसे मिलने की तमन्ना सी है,
    वो नहीं बस उनका ख़्याल आकर सताता है।


    कहाँ तो तक़रार उस रिश्ते की पहचान थी,
    आज देखो वही शख़्स मेरा ख़ास कहलाता है।


    कमबख़्त दोस्त ख़ुशी का ठिकाना कहते हैं मुझे,
    फिर क्यों कहीं आँसू झलकने पे मेरा नाम आता है।


    फ़िक्र, द्वेष, घृणा, छल तो आज हर चेहरे पर है,
    वो नन्हा चेहरा आख़िर मासूमियत कहाँ से लाता है,


    बचपन में बारिश हमें भिगोया करती थी कभी,
    अब आँखों बहती है और मन भीग जाता है।


    आज भी जब मिलता है अतीत मेरा,
    तो बस एक बात पूछता है -
    दो पल ही सही पंकज, क्या तू फिर से मुझे जीना चाहता है!


    पंकज ~


    (यह पोस्ट लगभग महीने भर पुरानी है जिसे इस ब्लॉग पर अब डाल रहा हूँ। पहले यहाँ पोस्ट की थी।)