दिल्ली और दिसंबर एक बहुत ही अलहदा मेल होता है। वो भी उन लोगों के लिए जो दिल्ली नए-नए आते हैं। बीते साल में दिल्ली की ठंड देख चुका हूँ, और इस साल उसकी कमी महसूस होती रही। क्योंकि इस सर्दी में दोस्तों का निरंतर साथ, कॉलेज के ठियों की चाय (और चार की छिनाछपटी), मंडी हाउस पर नून वॉक, मफ़लरों और ऊनी दस्तानों के फ़ेरबदल, क्रिसमस की लाल टोपियाँ, अल सुबह कॉलेज के कामों से निकलना और रातों रात तक शूट या एडिट करते रहने की बस यादें ही साथ थीं। इस बार फिर भी दिसंबर में दो-तीन दिन दिखे ठंड के जलवों में मोबाइल में यह एक ड्राफ़्ट बना लिया था।
जनवरी की लोहड़ी के आस-पास जाते-जाते ठंड के जलवों ने इस ड्राफ़्ट की याद दिला दी। अंत में यह रूप निकल कर आया है। थोड़ी उम्मीद की धूप आप भी ख़रीद ही लें केवल अगर इसे महसूस सकें तो!
--- उम्मीद की धूप ---
दिल्ली में सर्दी बहुत है,
क्यों कुछ साफ़ दिखता नहीं,
आँखें ही बंद हैं या ये धुंध है कोहरे की,
चलो निकल चलें बाहर
जाकर किसी परचून वाले से ज़रा,
सौ ग्राम धूप ही ख़रीद लें
कि अपने पास
रिश्तों की गर्माहट नहीं
न ही है पैसों की गर्मी,
ठंडे हैं हौंसले भी,
और खून में उबाल नहीं,
शायद वो धूप ही पिघला सके,
शरीर से मन में बस चुकी जड़ता को,
बहुत से परचून वाले बेचते हैं
खुली धूप उम्मीद की-
कहते हैं -कड़क है, गर्म है, तेज़ है
धूप हमारे यहाँ की,
मिलावटी नहीं है बाज़ार की तरह,
इंसान की तरह,
मौसम की तरह,
इसलिए ही वो भाव नहीं करते,
और बेचते हैं अपनी धूप मनमाने भाव पर,
आख़िर सर्दी की धूप है!
जब सूरज नहीं निकलता, तब-
तो ठिठुरते अरमानों को,
सीले हुए सामानों को,
गालों पे चिपके नमकीन पानी को,
सिकुड़ी हुई अपनी पेशानी को,
कलम की सूखी स्याही को,
अंधेरे में भटके राही को,
अलाव देती है,
यही उम्मीद की धूप,
कि सूरज कल तो निकलेगा ही,
तब तक,
कुछ धूप ख़रीद कर ही काम चला लें!
क्योंकि,
सर्दी की धूप जैसे एक उम्मीद ही तो है,
कि मौसम बस सुहाना होने को है!
~ पंकज ~
चित्र: साभार गूगलदेव