Thursday, May 5, 2011

आधी-अधूरी एक कविता के पूरे होने से लेकर एक नई कविता की रचना तक की गम्मत


पिछले हफ्ते से गम्मती हर रोज़ रात में एक उम्मीद लेकर बैठ रहा था कि फिर कुछ शुरू किया जाए। फिर कुछ शब्दों को काग़ज़ पर कत्ल किया जाए। कुछ नए विचारों को जन्म दिया जाए। और सहलाया जाए उन भावानाओं को दिल की सतह पर आती जाती रही। पर हमेशा की तरह बारिश बंजर ज़मीन पर नहीं बरसती है। ठीक उसी तरह बस सोचने से ही कुछ लिखना भी मुनासिब नहीं जैसा कि मैं हमेशा ही कहता रहता हूँ।

मेरी डायरी के पन्नों में या फिर टेकसैवी होने की हैसियत से यह कहूँ कि लैपटॉप की कुछ फ़ाइलों में कुछ आधी-अधूरी सी पंक्तियाँ पड़ी हुई हैं। परसो रात उन्हीं में से कुछ पंक्तियों को पूरा किया जो यहाँ पर आजा कभी तोशीर्षक के साथ है। फिर जब रंग चढ़ गया और फ्लेवर आ गया (आज शाम दिल्ली की गर्मी में चॉकलेट आइसक्रीम खाई थी, शायद इसलिए फ्लेवर शब्द का इस्तेमाल हो गया) तो फिर कल रात मैसेज टाइप करते रहने के अंजाम में कुछ-कुछ फिर लिख दिया। अब यह कुछ-कुछ भी तो पढ़वाना ही पड़ेगा ना आप सभी को। तो यह भी हाज़िर है, शीर्षक नींद नसीबीके साथ।
हमेशा की तरह आपके शब्दबाणों की चाह रहेगी।


"आजा कभी तो...."

के आजा इक रोज़, तो तुझे पहलू में रख लूँ अपने,
अरमान कुछ मैं देख लूँ, और कुछ पूरे कर दूँ सपने।

यूँ तो तेरे आने की राह कभी देखी नहीं है मैंने,
तू क्या जाने तेरी आहट में गुज़रे है पल कितने।

कि जायज़ है तेरी नाराज़ी यह मैं भी मानता हूँ,
तेरी हंसी के वास्ते, मुझसे गुनहगार लगे है बिकने।

कैसे मांग लूँ इश्क में तुझे अपनी मुराद समझकर,
जब ख़ुदा काली स्याही से लगे मेरा मुकद्दर लिखने।

तेरी यादों को समेट के दामन में छुपा लिया है यूँकि,
बैठा है आजकल वक्त मेरी ख़शियों का हिसाब करने।

~ पंकज 

"नींद नसीबी"

मुझे चैन की नींद सोना है,
सिरहाने बिना किसी तकलीफ़ या उलझन के,
आँखों में बिना किसी बेतरतीब से स्वपन के,
बिना, सीने में जलती तपन के,
और आँखे नम करने वाले ग़म के,

मुझे सोना है एक गहरी नींद,
जहाँ बंद आँखों के पीछे,
कोई स्याह परछाई ना हो,
किसी दिल की रूसवाई न हो,
नम आँखों की परतों पर जमी,
चिपचिपे आँसूओं की काई ना हो,
और तिस पर भी,
ख़ुद की ख़ुद से की बेवफ़ाई ना हो,

मुझे चाहिए एक ऐसी ही गहरी नींद,
पर इन आँखों में छुपा दर्द,
यूँही सोने नहीं देता,
मुस्कुराकर जीते रहने के वादों का,
वो भारी सा एक पुलिंदा,
बेफ़िक्र हो रोने भी नहीं देता,
मुझे किसी एवज़ में तुम उधार दे दो,
अपनी सादगी-प्यार भरी आँखें,
के शायद इन्हीं की सच्चाई से,
मुझे नींद नसीब हो जाए।

~ पंकज

चित्र: साभार गूगलश्री से

2 comments:

  1. Kya comment ho sakti hai ispe... kuchh samajh nahi aa raha... really good... btw source of inspiration kya hai?? ;)

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  2. jharu dunia me sab kahi na kahi kabhi akela mahsus karte hi hai......nice poem....

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