आँसू एक पुरूष के...
चार साल पहले इस ब्लॉग का नाम रखा था "गम्मत"। क्योंकि तब गम्मत सिर्फ़ मस्ती थी और मालवा में रहने का असर था इस नाम को चुनने में, किंतु अब लगता है कि गम्मत पूरी तरह बस गई है मुझमें। मेरे हर काम में। अभी जीवन में जितनी गम्मत चल रही है उससे तो यही लगता है कि गम्मती की गम्मत ताउम्र ज़िंदा रहने वाली है। ख़ैर ज़्यादा समय नहीं है फ़िलहाल इसलिए सीधे मुद्दे पर आता हूँ।
आज इंदौर छोड़कर जा रहा हूँ। पंद्रह दिनों पहले दिल्ली गया था ये सोचकर कि वापस इंदौर आ जाऊँगा पर अब सालभर के लिए जा रहा हूँ दिल्ली अपनी पढ़ाई के सिलसिले में। अभी जब वापस इंदौर आया तो सबसे मिलने और कुछ पल साथ बिताने में ही हफ़्ता बीत गया। दो बार तो सुबह घर से बिना नहाए निकला और रात तक घर की ओर रूख़ भी नहीं कर पाया। परसो भी एक ऐसा ही दिन रहा जब इंडियन कॉफ़ी हाउस (ICH) पर कुछ दोस्तों से मिलने का समय तय हो गया था। गनीमत से इस बार मैं सबसे पहले पहुँच गया और बाकियों के इंतज़ार के दौरान ICH ने एक याद और दे दी मुझे। वहीं बाहर एक इंसान साथ में खड़ा था, एक नज़र उसे देखा और विचलित हो गया था। दो मिनट बाद ही उस बंदे को फूट-फूटकर रोते देखा। और रात में वही किस्सा याद करके ये रच डाला....
अभी के लिए ये रचना... बाक़ी दिल्ली पहुँचकर...