Friday, August 6, 2010

आँसू एक पुरूष के...

चार साल पहले इस ब्लॉग का नाम रखा था "गम्मत"। क्योंकि तब गम्मत सिर्फ़ मस्ती थी और मालवा में रहने का असर था इस नाम को चुनने में, किंतु अब लगता है कि गम्मत पूरी तरह बस गई है मुझमें। मेरे हर काम में। अभी जीवन में जितनी गम्मत चल रही है उससे तो यही लगता है कि गम्मती की गम्मत ताउम्र ज़िंदा रहने वाली है। ख़ैर ज़्यादा समय नहीं है फ़िलहाल इसलिए सीधे मुद्दे पर आता हूँ।

आज इंदौर छोड़कर जा रहा हूँ। पंद्रह दिनों पहले दिल्ली गया था ये सोचकर कि वापस इंदौर आ जाऊँगा ‍पर अब सालभर के लिए जा रहा हूँ दिल्ली अपनी पढ़ाई के सिलसिले में। अभी जब वापस इंदौर आया तो सबसे मिलने और कुछ पल साथ बिताने में ही हफ़्ता बीत गया। दो बार तो सुबह घर से बिना नहाए निकला और रात तक घर की ओर रूख़ भी नहीं कर पाया। परसो भी एक ऐसा ही दिन रहा जब इंडियन कॉफ़ी हाउस (ICH) पर कुछ दोस्तों से मिलने का समय तय हो गया था। गनीमत से इस बार मैं सबसे पहले पहुँच गया और बाकियों के इंतज़ार के दौरान ICH ने एक याद और दे दी मुझे। वहीं बाहर एक इंसान साथ में खड़ा था, एक नज़र उसे देखा और विचलि‍त हो गया था। दो मिनट बाद ही उस बंदे को फूट-फूटकर रोते देखा। और रात में वही किस्सा याद करके ये रच डाला....

अभी के लिए ये रचना... बाक़ी दिल्ली पहुँचकर...



~ अश्रू व्यापार

बारिश की बूँदों के बीच,
आज कोई दिखा रोता हुआ,
फूटकर अश्रू बहाता,
सिसकियाँ लेता हुआ

दो पल पहले ही एक लम्हे के लिए
उससे नज़रें हुई थीं मेरी बाबस्ता
कह रहीं थीं जैसे
दो होकर भी अकेली हैं वो
और रोना चाहती हैं आहिस्ता-आहिस्ता
क्योंकि रोने वाले को ये कमज़ोर कहते हैं

फिर यकायक अश्रूओं के वो ज्वार
उसकी आँखों के बाँध को पार गए,
छलछला गए आँसू भरी सड़क पर
जो मेरी कृतिम ख़ुशी के लबादे को भी
बिना मुझसे पूछे तार-तार कर गए,
सोचा दौड़कर उसे गले लगा लूँ
पराए अश्रूओं को अपने कंधों पर पोंछ लूँ,
और लगे हाथ चुपके से -
अपने कुछ ज्वार उस पराए कांधे पर छोड़ दूँ,

लेकिन उस वक्त मैं कमज़ोर नहीं पड़ा...

उसी रात में एक मीठी गहरी नींद के बाद,
एक ज्वार फिर उठा कुछ फ़र्क के साथ,
क्यों‍कि इस बार अश्रू पराए न थे
अब मैं कमज़ोर पड़ गया था...
और कल्पनाओं में ढूँढ रहा था बिस्तर पर
एक कंधा भिगोने के लिए,
किसी पराए का या किसी अपने का...

और सोचता रहा इसी तरह
काश बिना अपने-पराए के भेद के
यूँ ही अश्रू व्यापार हम कर सकते...
यूँ ही अश्रू व्यापार हम कर सकते...

~ पंकज