अहम् रावण अस्मि!
विजयादशमी पर्व की ढेरों शुभकामनाएँ आप सभी को इस रचना के साथ!
आती सर्दियों से रिसती धूप में,
ईमान जैसी सूखी घास,
अपनेपन के चमकीले दिखावटी कपड़े,
कई छुपे चेहरों के साथ,
कलयुगी रावण के रूप में,
हर वर्ष नए अस्तित्व में गढ़ा,
फिर से हुआ एक ढाँचा खड़ा,
सोचता हूँ काश,
मैं भी रावण ही होता,
सब पर राज करने की,
मैं महत्वकांक्षा रखता,
चाहता माँस, मदिरा, माया,
के भोग की विलासिता,
पर नार के लालस में,
कामनाओं के वश में,
लाँघ भी देता समुद्र की सीमा,
दमन करता, जीतता दुर्बल को,
अनुकूल करता हर प्रतिकूल को,
भाई कहकर लूटता धनकुबेर को,
मित्र अपना कहता बस दिलेर को,
और फिर
नाश करता सर्वसामान्य के मूल को,
इसमें क्यों लजाऊँ मैं,
बोलो ना?
क्यों
इस कलयुग की भीड़ में,
दुर्भावना, बेमानी से झुकी
खोखली होती रीढ़ में,
दमन की राजनीति में,
अन्याय की आपबीति में,
फ़र्स्ट आने की रेस में,
या घर-गहस्थी के क्लेश में,
तुम सब भी तो यही चाहते हो,
महत्वकांक्षा, माया, भोग विलासिता,
शक्ति, सत्ता, सम्मान, चाटुकारिता!
इसलिए सोचता हूँ कि आज,
मैं भी रावण बन जाउँ,
सबसे ऊँचा खड़ा होकर,
मेरी मृत्यु का उल्लास मनाने आए,
लोगों को निहारूँ,
और जब सत्य की चिंगारी,
भस्म कर दे मुझे पूर्णरूप में,
तब अट्टाहस भरूँ,
अपने राख होने पर,
क्योंकि तुम तालियाँ पीटते,
शंखनाद और ईश्वरी नारों के बीच,
अपने-अपने रावण को लेकर,
घर लौट जाओगे!
~ पंकज