Monday, May 9, 2011

माँ....तू बोलती नहीं


पश्चिमी सभ्यता के दिए त्यौहारों की ही तरह व्यावसायिकता के लिए मनाए जाने वाले अनगिनत दिनों की भीड़ में मातृ दिवस भी आ गया है। वैसे तो इस मातृ दिवस पर अपनी माँ को विशकरने की परंपरा मैं पूरी कर चुका था। पर फिर भी कुछ तो कमी थी ही।
रविवार की अलसाई शाम में घर पर बात हुई। दोस्तों के साथ फ़ोन पर कई लम्हों की चीर-फाड़ भी कर डाली।  और कई दोस्तों के द्वारा अपनी माँ के नाम लिखे कई पैग़ाम और उनकी कवि‍ताओं और रचनाओं पर भी नज़र पड़ गई। ऐसे में ही एक दोस्त विपुल की एक रचना पढ़ने का मौक़ा मिला। बहुत ख़ूबसूरत लिखा था उन्होंने जो मुझे अपनी कहानी सा लगा। या कहूँ हर बेटे को अपनी माँ के लिए लिखे एक ख़त सा लगा। इस ‍कविता ने एक घाव तो कर ही दिया था। रात में अरसे बाद एक बार फिर कई मुद्दों पर बहुत ही प्यारी सी दोस्त यामिनी से बात होने से मानो उस घाव पर नमक डल गया हो।

जो टीस और दर्द उस घाव से बहा उसी को शब्दों के रूप में इस रचना में बांध दिया।

"माँ तू बोलती नहीं"

माँ...
तू कुछ कहती क्यूँ नहीं कभी,

जबकि मैं देखता हूँ तेरी आँखों में,
कितनी ही उम्मीदें मुझे लेकर,

पहले पढ़ नहीं पाता था तुझे,
अल्हड़ था, ख़ुरापाती था,
छेड़ता था मस्ती में,
और कितना सताता था तुझे,
फिर भी कुछ कहा नहीं तूने,

देर रात में आकर घंटी बजाता,
कि डाँटेगी दरवाज़ा खोलकर मुझे,
पर अलसाई आँखें लेकर तू,
बस अंदर बुला लेती थी घर में मुझे,

ज़ोर से चिल्लाता था तुझ पर,
तू जब अलसुबह उठाती थी,
फिर भी हँसते हुए तू,
मेरे लिए खाना बनाती थी,
डाँटती भी इसलिए थी
कि बस एक रोटी खाकर निकलूँ घर से,
और मैं बेशर्म सा,
तेरे बेलन की मार से बचता-बचाता
फिर भी गुदगुदाता था तुझे,

कभी टोका नहीं तूने मुझे,
देर रात तक जब फ़ोन पर बातियाता था,
अपनी कितनी सहेलियों के नाम बताता था,
पर तेरे विश्वास ने साँस दी मुझे,
क्योंकि मेरा पहला प्रेम हमेशा तू रही है,
तेरी आँखों ने कहा है मुझसे,
हमेशा-
हाँ बेटा तू सही है,
बस इसलिए ही मैं लड़ सका हूँ सबसे।

लिपटकर सोता था बचपन में तुझसे,
फिर अपनी ही
नींदों, बिस्तर और बातों में मसरूफ़ मैं,
बड़ा हो गया!
तब भी चुप ही रही तू।

रोता था अपनी चीज़ों के ग़ुम होने पर,
और तू माथे पर हाथ फेरकर,
गांभीर्य के साथ,
नसीहत की जगह तसल्ली देती थी।
और अब ज़िदगी की दौड़ भाग और भीड़ में,
जब मैं... खोता जा रहा हूँ,
तब भी कुछ कहती नहीं तू।

लंबे सफ़र में रोटी बांधकर देने पर,
ऐन मौके पर घर से निकलते हुए,
तेरी पूजा के फूल मँगवाने पर,
मेरी सलामती के तेरे लंब-लंबे उपवास में,
गणेश को मन भर चढ़ाती तेरी द्रोव रूपी घास में,
काम के बो़झ में बेतरतीब तेरे सुनहरे बालों पर,
और क्रिकेट, मोबाइल, इंटरनेट, अंग्रेज़ी से जुड़े,
बच्चों की तरह तेरे नादान सवालों पर,
मैं कितना नाराज़ हुआ हूँ तुझ पर,
माँ - फिर भी,
तूने कुछ कहा नहीं कभी,

मैं जानता हूँ कि इस एक सवाल को पढ़ती,
अपने चश्मे से झाँकती तेरी आँखें,
नम हो सकती हैं,
फिर भी कुछ नहीं कहेगी तू,

पर तेरी इस ख़ामोशी का राज़,
अब मैं समझ पाया हूँ,
कि क्यों कुछ कहा नहीं तुने कभी,
सिर्फ इसलिए ही,
क्योंकि तू "माँ" है!

~ पंकज


चित्र: गूगल और मेरा संग्रह

Thursday, May 5, 2011

आधी-अधूरी एक कविता के पूरे होने से लेकर एक नई कविता की रचना तक की गम्मत


पिछले हफ्ते से गम्मती हर रोज़ रात में एक उम्मीद लेकर बैठ रहा था कि फिर कुछ शुरू किया जाए। फिर कुछ शब्दों को काग़ज़ पर कत्ल किया जाए। कुछ नए विचारों को जन्म दिया जाए। और सहलाया जाए उन भावानाओं को दिल की सतह पर आती जाती रही। पर हमेशा की तरह बारिश बंजर ज़मीन पर नहीं बरसती है। ठीक उसी तरह बस सोचने से ही कुछ लिखना भी मुनासिब नहीं जैसा कि मैं हमेशा ही कहता रहता हूँ।

मेरी डायरी के पन्नों में या फिर टेकसैवी होने की हैसियत से यह कहूँ कि लैपटॉप की कुछ फ़ाइलों में कुछ आधी-अधूरी सी पंक्तियाँ पड़ी हुई हैं। परसो रात उन्हीं में से कुछ पंक्तियों को पूरा किया जो यहाँ पर आजा कभी तोशीर्षक के साथ है। फिर जब रंग चढ़ गया और फ्लेवर आ गया (आज शाम दिल्ली की गर्मी में चॉकलेट आइसक्रीम खाई थी, शायद इसलिए फ्लेवर शब्द का इस्तेमाल हो गया) तो फिर कल रात मैसेज टाइप करते रहने के अंजाम में कुछ-कुछ फिर लिख दिया। अब यह कुछ-कुछ भी तो पढ़वाना ही पड़ेगा ना आप सभी को। तो यह भी हाज़िर है, शीर्षक नींद नसीबीके साथ।
हमेशा की तरह आपके शब्दबाणों की चाह रहेगी।


"आजा कभी तो...."

के आजा इक रोज़, तो तुझे पहलू में रख लूँ अपने,
अरमान कुछ मैं देख लूँ, और कुछ पूरे कर दूँ सपने।

यूँ तो तेरे आने की राह कभी देखी नहीं है मैंने,
तू क्या जाने तेरी आहट में गुज़रे है पल कितने।

कि जायज़ है तेरी नाराज़ी यह मैं भी मानता हूँ,
तेरी हंसी के वास्ते, मुझसे गुनहगार लगे है बिकने।

कैसे मांग लूँ इश्क में तुझे अपनी मुराद समझकर,
जब ख़ुदा काली स्याही से लगे मेरा मुकद्दर लिखने।

तेरी यादों को समेट के दामन में छुपा लिया है यूँकि,
बैठा है आजकल वक्त मेरी ख़शियों का हिसाब करने।

~ पंकज 

"नींद नसीबी"

मुझे चैन की नींद सोना है,
सिरहाने बिना किसी तकलीफ़ या उलझन के,
आँखों में बिना किसी बेतरतीब से स्वपन के,
बिना, सीने में जलती तपन के,
और आँखे नम करने वाले ग़म के,

मुझे सोना है एक गहरी नींद,
जहाँ बंद आँखों के पीछे,
कोई स्याह परछाई ना हो,
किसी दिल की रूसवाई न हो,
नम आँखों की परतों पर जमी,
चिपचिपे आँसूओं की काई ना हो,
और तिस पर भी,
ख़ुद की ख़ुद से की बेवफ़ाई ना हो,

मुझे चाहिए एक ऐसी ही गहरी नींद,
पर इन आँखों में छुपा दर्द,
यूँही सोने नहीं देता,
मुस्कुराकर जीते रहने के वादों का,
वो भारी सा एक पुलिंदा,
बेफ़िक्र हो रोने भी नहीं देता,
मुझे किसी एवज़ में तुम उधार दे दो,
अपनी सादगी-प्यार भरी आँखें,
के शायद इन्हीं की सच्चाई से,
मुझे नींद नसीब हो जाए।

~ पंकज

चित्र: साभार गूगलश्री से