"मैं..."
लिखने के विचार कुछ और थे लिख कुछ और ही डाला। दो-तीन हफ़्तों पहले बमुश्किल 36 घंटों के लिए अपने गृहनगर का रूख़ किया था। तब उस मिट्टी की महक, अपने मोहल्ले के शोर-शराबे और अपनी गाड़ी पर चलते हुए लगने वाली मालवा की आबोहवा ने दिल्ली के बारे में अपने विचार लिखने का बीज मन में बो दिया था। पर दिल्ली आकर व्यस्तता के चलते उस बीज में शब्दों का खाद पानी डालने का मौका ही नहीं मिला।
आज लिखने बैठा भी तो कुछ पुरानी अधूरी पंक्तियों को अस्तित्व प्रदान कर दिया। कभी लगता था कि कुछ सवालों के जवाब देने की ज़रूरत नहीं होती, क्योंकि उनका उत्तर समझा जा सकता है। लेकिन कभी-कभी जवाब तो देना होता है लेकिन बहुत से सवालों के जवाब देना आसान नहीं होता। पर शब्दों से खेलते हुए हर चीज़ आसान सी लगने लगती है। चाहे दाँत फ़ाड़कर मुस्कुराना हो या फिर जिंदगी जीने और ख़ुशियाँ बाँटने की बातें करना। आज शायद दो कविताएँ लिख दी हैं - एक तो यहाँ प्रस्तुत है। और दूसरी जो एक मित्र को मैसेज पर बातों बातों में लिखकर भेज दी। सोचता हूँ कि बातों-बातों में कही गई पंक्तियों और कविताओं का भी भण्डार है मेरे पास जो मैंने लिखकर सुरक्षित भी रखा है। लेकिन फिलहाल के लिए इस रचना को समय दीजिए...
"मैं..."
दर्द भी देता हूँ, अपनों को दवा भी देता हूँ,
मेरे दुश्मनों को देखो मैं दुआ भी देता हूँ,
शोलों से खेलने का शौक रहा नहीं मुझे,
पर सुलगती चिंगारियों को हवा भी देता हूँ।
ग़म-ए-इश्क कोई और दे ऐसा ज़रूरी नहीं,
मैं ख़ुद को ख़ुद से प्यार की सज़ा भी देता हूँ।
दिल तोड़ना तुम्हारे वास्ते ख़ुदा का कुफ़्र सही,
इसी ख़ता की अपने ख़ुदा से मैं रज़ा भी लेता हूँ।
बेशक तुम्हारी तमाम उम्मीदों से वाक़िफ़ हूँ मैं,
क्यों समझती नहीं जब आँखों से बता भी देता हूँ।
तकल्लुफ़ नहीं कि इस चेहरे पर नक़ाब हैं कई,
हर चेहरे को अपने मैं जीने की वजह भी देता हूँ।
ये कैसी उलझन तेरी जिसकी कोई वजह ही नहीं,
कभी आकर मिल तुझे कुछ यादों का पता भी देता हूँ।
अपनों की तमन्नाओं को जीना ही ज़िंदगी है मेरी,
इसलिए ही ख़ुद के अरमानों को अब दग़ा भी देता हूँ।
दर्द भी देता हूँ, और 'ख़ुद' को दवा भी देता हूँ...
~ पंकज
चित्र: साभार गूगल जी के ज़रिए।