गम्मती फिर जागने लगा है! (एक लघुकथा)
लगता है लोग गम्मती को भूल गए! अरे ठीक भी तो है, हम जब से गायब हुए एक बार भी किसी के हाल चाल पूछने या उनकी बातों पर अपनी उल्टी-सीधी राय देने नहीं पहुँचे बस गायब हुए तो हो ही गए। कोई अता-पता ही नहीं। और ये सही भी है, भला क्यों कोई याद करता हमें। हम कौनसे चिट्ठों और टिप्पणियों के झण्डे गाड़कर गायब हुए थे जो कोई न कोई सज्जन हमें ढूँढने की कोशिश भी करता। चलिए अब स्वयं से तो मैं लड़ता रहूँगा। अभी तो आपको ये बता दूँ कि मैं फिर से आ गया हूँ (पता नहीं कब तक रहूँगा)। सच में बड़ी हिम्मत करनी पड़ी फिर से हाथ चलाने और टिपियाने के लिए।
आप लोग फिर से स्वागत करेंगे तो अच्छा लगेगा...
पढ़ाई, काम, इधर-उधर की दौड़भाग और ज़माने भर के बहाने बनाकर ये कहता रहा कि समय नहीं मिल पा रहा है। पर अब बहुत हो गया आख़िर एक बार पोस्ट डालने का कीड़ा लगा है, तो भला छुटेगा क्या? जब वापस आया तो यही देखा कि कहीं ब्लॉग्स पर भारत रत्न की खींचतान है, तो कोई गुजरात चुनावों का अब तक विश्लेषण कर रहा है। कोई सेंसेक्स की उछलकूद पर चिंतित है, तो कोई बिहारी होने के नफ़े-नुकसान पर। इसलिए सोचा कि अपन तो ट्रैक ही बदल लो और सीधी-सादे अंदाज़ में वापस लौटो। इसलिए ही एक लघुकथा छाप रहा हूँ...
* पागल का भोलापन...
वो रात में अकेला ख़ुद के बारे में सोच रहा था। अपने विचारों के तारों में उलझा हुआ कभी इधर खिंचाता कभी उधर। कितनी ही बातें मन में आईं और गईं होंगी। पर फिर भी उसे लगा कि कुछ सूझ नहीं रहा था। वाकई वह स्तब्ध था अपने आप से, अपने जीवन की रफ़्तार या उसके ठहराव से। वो जीवन की रफ़्तार के साथ दौड़ने को आतुर था, किंतु फिर भी कुछ देर थमना चाहता था। अपने स्वार्थ और जीवन की सच्चाई के बीच की परतों को खरोंच-खरोंच कर हटाने की कोशिशें करने लगा। और हमेशा मौन रहकर उसे समझने की कोशिश करने वाला उसका साथी उसे देखकर हँस रहा था।
वह निस्तब्ध उसे देखकर मुस्कुता रहा और फिर कुछ क्षणों बाद वह भी साथी की तरह गंभीर हो गया। वो अपनी रौशनी से अंधेरे में छिपी बातों को भाँप लेने का प्रयास कर रहा था। कुछदिनों से उसने अपने साथी को हँसता हुआ देखा था। बिलकुल बेफिक्र संसार की परवाह किए बिना, धुन में जीने वाला उसका साथी। वो साक्षी था जब वो सर्द रात में सड़कों पर हँसते हुए गाड़ी दौड़ाता था। जब बाहें फैलाकर ठंडी हवाओं को खुद में समा लेता था। सुनसान सड़कों पर गाने गाता आगे बढ़ता था। रास्ते में आने वाली हर चीज़, हर पत्थर को पीछे छोड़ने पर ठहाका लगाता था। रात्रि के अंधेरे में छत पर अकेला नाचता था। पर आज उसे ऐसा लगा कि उसका साथी ख़ुद पर हँस रहा था।
दरअसल उसे अपनी क़ीमत का एहसास हो रहा था। ऐसा नहीं था कि उससे किसी ने प्रेम नहीं किया, वो किसी का लाड़ला नहीं था, उसके दोस्त उसकी बात नहीं सुनते थे, उससे किसी बारे में बातें नहीं करते थे, वो अभी तक दोस्तों के बीच किसी पवित्र और ईमानदार बंधन में नहीं बंधा था। लेकिन इन सब के बावजूद कुछ ऐसा हुआ था जो उसके लिए बहुत नया था। कोई उसके मन की सुनना चाहता था, उसे अपनी सुनाना चाहता था। कोई उस पर विश्वास करने लगा था। अपना अक्स उसमें तलाशने लगा था। और उसे ये अजीब लग रहा था कि वह कुछ न करते हुए भी उसके चिंतक की सभी उम्मीदों पर खरा उतर रहा था। वो नहीं जानता था कि उसे आगे क्या करना है। कितनी ख़ुशियाँ बाँटनी हैं। कितना ख़ुद ख़ुश रहना है। वो तो बस वही करता जा रहा था जो उसे करना था और जो वो करता था। पर उसके ऐसे ही कामों ने उसकी इज़्जत बढ़ा दी थी कहीं न कहीं जिस पर वो विश्वास नहीं कर पा रहा था।
वो इन सबके साथ रहते हुए भी इन बातों से दूर भाग रहा था। ऐसे दुबके-दुबके कि किसी को एहसास भी न हो और वह फिर से उसी ढर्रे पर लौट आए। वही रास्ता जहाँ वह अकेले रहकर सबको ख़ुश करने का प्रयत्न करता रहता था। उसे लग रहा था कि वो जो कर रहा है किसी को दुख नहीं पहुँचाएगा। किंतु आख़िर किस-किसी को ख़ुश रख सकता था वो। उसे यह समझने में ज़रा देर लग गई थी कि किसी की ख़ुशी के पीछे किसी का दुख तो होगा ही। यही जानकार ही उसने निश्चय किया। वह अनजाने व्यक्ति को दुख न पहुँचाने के लिए प्रत्यक्ष खड़े उसके अपने अक्स के चेहरे की रंगत उसका हक़ नहीं छीन सकता था। यह अन्याय होता उसके अक्स पर और ख़ुद पर भी।
ये सब सोचकर, स्थिति को जान परखकर साथी की गंभीरता उड़ी और वह और ज़्यादा हँसने लगा। वो उसकी तरफ़ व्यंग भरी दृष्टि से देख रहा था। अब उसे हँसी आ रही थी अपने साथी के पागलपन पर, उसके भोलेपन पर। हाँ, शायद वो भोलापन ही तो था जो वो एक विश्वास के बंधन की चरम सीमा से डर रहा था। परंतु अब ऐसा नहीं था, उसने अपने स्वार्थ और सत्य के बीच की परतों को हटा दिया था। उसके मन में उस विश्वास को अभय होकर पूरा करने और निभाने की क्रांति आ गई थी। दोनों साथियों की नज़रे अचानक मिलीं, और दोनों फूट पड़े ठहाके लगाने लगे। शुरू में चुप बैठने वाला ख़ुद पर हँस रहा था। और दूसरा वाला अपने साथी के पागलपन पर उसके भोलेपन पर...।