इस बार की कविता मैंने अपनी भावनाओं से नहीं बल्कि किसी और की भावनाओं को लेकर लिखी है। यह सोचना बहुत आसान होता है कभी-कभी कि सामने वाला क्या सोच सकता है, लेकिन अगर आप उसी के जैसे बनकर सोचने लगें और वह भी शब्दों में बांधने के लिए तो बात कुछ और हो जाती है।
स्कूल के समय में भी एक दोस्त ने मुझे एक लड़की की भावनाओं पर कुछ लिखने के लिए कहा था। उस समय भी
"काश तुम समझ पाते" लिखी ज़रूर थी पर इतनी गहराई से सोचा नहीं था। इस कविता को लिखते समय शब्दों का अपना अलग ही बोझ था।
यह कविता मैंने लिखी ज़रूर है लेकिन किसी और की सोच के साथ। डर केवल इतना है कि पता नहीं उन भावनाओं के साथ मेरे शब्द और सोच न्याय कर पाए हैं या नहीं।
अगर यह न्याय है भी तो फिर डर इस बात का है कि कहीं यह कविता शब्दों के लिए किसी और पर आश्रित होने का सबब न बन जाए। उम्मीद है आपको ....... लगेगी। अच्छी या बुरी के लिए
Feel in the Blanks and then
Fill in the Blanks :)
तोहफ़ा तुम्हारा...
क्या तोहफ़ा दूँ तुम्हें,
जब ख़ुद को दे चुकी हूँ,
पर तुम्हारी क़ीमत मैंने,
ख़ुद से ज़्यादा आँकी है,
मैं जानती हूँ तुम्हारी हर पसंद,
फिर इतना मुश्किल क्यों है,
तुम्हारे लिए एक तोहफ़ा भर चुनना,
मैंने -
तुम्हें शब्दों से खेलते देखा है,
पर तुम्हारे शब्दकोश के लिए
कुछ शब्दों की गठरी बनाकर,
कैसे दे देती तुम्हें,
जब मैं ही निशब्द हूँ तुम्हारे आगे,
मैंने-
सोचा कि माथा चूमकर तुम्हें,
कहूँ "
आई एम सॉरी",
तुम्हारे लिए कुछ न कर सकी मैं,
पर पता है मुझे,
तुम बेबाक हँसी के साथ कहते,
यही काफ़ी है कि,
मैंने तुमसे प्यार किया है,
मैंने-
अपने ईश्वर से आशीष भी माँगा,
कि पहुँचा दूँगी तुम तक,
यूँ कि तुम कहाँ उसके दर जाते हो,
तुम्हारे पास तो लेकिन,
माँ का प्यार,
दोस्तों की नसीहतें,
अपनों की शुभकामनाएँ,
बड़ों का आशीष,
सब पहँच चुका होगा अब तक,
मैंने-
समय की कलम थामकर,
यादों का ढक्कन खोला,
लिखने बैठी चंद लफ़्ज,
पर मैं ही पगली थी,
क्योंकि उसमें भरी हुई थी,
मेरे आँसूओं की बेरंग स्याही,
जो क़ाग़ज़ काला न कर सकी,
बस भिगोती चली गई,
क़ाग़ज़ को और मुझे,
इसलिए हारकर,
तुम्हें दो कोरे काग़ज़ दे रही हूँ,
अपने हाथों का स्पर्श देकर,
एक क़ाग़ज़ मुझे लौटा देना,
और बचा एक कोरा क़ाग़ज़,
रख लेना तुम,
क्योंकि,
फिर से हँसना, रोना, बोलना,
उड़ना और स्वछंद जीना,
तुम सीखा चुके हो मुझे,
इसलिए मैं तोहफ़ें में तुम्हें,
बस एक कोरा क़ाग़ज़ नहीं,
अपनी बची-कुची ख़ामोशी दे रही हूँ,
जो तोड़ चुके हो तुम!
~ पंकज